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चतुर्दश अध्याय (पंचम अध्याय) यत्कर्ता किल वज्रजङ्घनृपतिर्यत्कारयित्री सती ___श्रीमत्यप्यनुमोवका मतिवरव्याघ्रादयो यत्फलम् । आसेदुर्मुनिदानतस्तदधुनाऽप्याप्तोपदेशाब्दक
व्यक्तं कस्य करोति चेतसि चमत्कारं न भव्यात्मनः ॥५०॥ किल-आर्षे श्रूयते । मतिवरः-वज्रजङ्घनृपतेमन्त्री। आदिशब्दादानन्दो नाम तस्यैव पुरोहितः, अकम्पनाभिधानः सेनापतिर्धनमित्रनामा च श्रेष्ठी । पुनरादिशब्दान्नकुलः सूकरो वानरश्च गृह्यते। मतिवरश्च ६ व्याघ्रश्च मतिवरव्याघ्री तावादिर्येषां ते तथोक्ताः इति विग्रहाश्रयणात् । आसेदु:-प्राप्ताः ॥५०॥ अथातिथ्यन्वेषणविधि श्लोकद्वयेनाह
कृत्वा माध्याह्निकं भोक्तुमुद्युक्तोऽतिथये ददे । स्वार्थ कृतं भक्तमिति ध्यायन्नतिथिमीक्षताम् ॥५१॥ द्वीपेष्वर्धतृतीयेषु पात्रेभ्यो वितरन्ति ये।
ते धन्या इति च ध्यायेदतिथ्यन्वेषणोद्यतः ॥५२॥ स्वार्थ-आत्मार्थम् । आत्मनो निमन्त्रणादौ सत्यात्मीयार्थमपि । उक्तं च
'कृतमात्माथं मुनये ददामि भक्तमिति भावितस्त्यागः ।
अरतिविषादविमुक्तः शिथिलितलोभो भवयहिंसैव ॥' [ पुरुषार्थ. १७४ ] आगममें ऐसा सुना जाता है कि मुनिदानके कर्ता राजा वज्रजंघने, अपने पतिको दान देनेकी प्रेरणा करनेवाली पतिव्रता श्रीमतीने, और दानकी अनुमोदना करनेवाले मतिवर मन्त्री आदि तथा व्याघ्र आदिने मुनिदानसे जो फल प्राप्त किया वह परापर गुरुओंके उपदेश रूपी दपणमें व्यक्त हुआ आज भी किस भव्य जीवके चित्तमें आश्चर्य पैदा नहीं करता अर्थात् सभीके चित्तमें करता है ॥५०॥
विशेषार्थ-महापुराणमें भगवान् ऋषभदेवके पूर्वभवके कथनमें यह प्रसंग वर्णित है। राजा वज्रजंघ उत्पलखेट नगरका स्वामी था और उसकी पत्नी श्रीमती पुण्डरीकिणी नगरीके स्वामी वज्रदन्त चक्रवर्ती की पुत्री थी। राजा वज्रजंघने अपनी पत्नीकी प्रेरणासे मुनियोंको दान दिया था। उस समय उपस्थित मतिवर मन्त्री, आनन्द पुरोहित, अकम्पन सेनापति और धनमित्र सेठ तथा वनवासी शूकर, बन्दर और नेवलेने उस दानकी अनुमोदना की थी। राजा वज्रजंघ तो आठवें भवमें भगवान् आदिनाथ हुए। उनकी पत्नी श्रीमतीने श्रेयांसके रूपमें जन्म लेकर भगवान आदिनाथको आहारदान देकर दानतीर्थका प्रवर्तन किया। तथा दानकी अनुमोदना करनेवाले मतिवर मन्त्री, सेनापति अकम्पन, आनन्द पुरोहित तथा धनमित्र सेठ, व नकुल, सिंह, वानर और शूकर इन आठोंने भी भगवान् ऋषभदेवके तीथमें मोक्षलाभ किया। यह दानका अद्भुत माहात्म्य आश्चर्यकारी है ॥५०॥
अब अतिथिको खोजनेकी विधि बताते हैं
अतिथिसंविभागवती मध्याह्नकाल सम्बन्धी स्नान, देवपूजा आदि करके जब भोजन करनेके लिए तैयार हो तो अपने तथा अपने जनोंके लिए बनाये गये भोजनको मैं किसी अतिथिको दूं, इस प्रकार एकाग्रतापूर्वक विचारता हुआ अतिथिकी प्रतीक्षा करे ॥५१॥
जम्बूद्वीप, धातकीखण्ड और आधे पुष्करवर द्वीप इन ढाई द्वीपोंमें जो पात्रोंको दान देते हैं, वे धन्य हैं, अतिथिकी प्रतीक्षामें तत्पर श्रावक ऐसा विचार करे ॥५२।।
सा.-३२
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