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________________ २४४ धर्मामृत ( सागार) एतदेव विशेषयन्नाह यतिः स्यादुत्तमं पात्रं मध्यमं श्रावकोऽधमम् । सुदृष्टिस्तद्विशिष्टत्वं विशिष्टगुणयोगतः ॥४४॥ स्पष्टम् ॥४४॥ दानविधेः प्रकारान् वैशिष्टयं चाह प्रतिग्रहोच्चस्थानांघ्रिक्षालनार्चानतीविदुः । योगान्नशुद्धीश्च विधीन् नवादरविशेषितान् ॥४५॥ प्रतिग्रहेत्यादि । प्रतिग्रहादीनामुत्तमपात्रविषयाणां विस्तरशास्त्रं... 'पत्तं णियपुरदारे दठूणण्णत्थ वा वि मग्गित्ता। पडिगहणं कायव्वं णमोत्थु हाहुत्ति भणिदूण ।। णेऊण णिययगेहं णिरवज्जाणुवहदुच्चठाणम्मि । ठविदूण तदो चलणाण धोवणं होदि कायव्वं ।। पादोदयं पवित्तं सिरम्मि ठादूण अच्चणं कुज्जा। गंधक्खय-कुसुमणिवेज्जदीवधूवेहिं य फलेहिं ।। वे ही तीन भेद बतलाते हैं मुनि उत्तम पात्र है। श्रावक मध्यम पात्र है और सम्यग्दृष्टि जघन्य पात्र है। गुणविशेषके सम्बन्धसे उन उत्तम, मध्यम और जघन्य पात्रोंमें परस्परमें तथा दूसरोंसे भेद है ॥४४॥ विशेषार्थ-मुनि या यति या साधुमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनों रत्नोंका संयोग रहता है। श्रावकमें सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानके साथ एकदेश संयम रहता है और सम्यग्दृष्टि असंयत सम्यग्दृष्टि होता है उसमें संयमका एकदेश भी नहीं रहता है। इस तरह इन गुणों के संयोगके भेदसे पात्रके तीन भेद रत्नकरण्ड के सिवाय सब श्रावकाचारोंमें कहे हैं ॥४४॥ दानकी विधि के प्रकार और उनकी विशेषता बतलाते हैं 'पूर्वाचार्य यथायोग्य भक्तिपूर्वक उपचारसे विशेषताको प्राप्त प्रतिग्रह, उच्चस्थान, पादप्रक्षालन, पूजा, नमस्कार, मनःशुद्धि, वचनशुद्धि, कायशुद्धि इन नौ विधियोंको अर्थात् दान देनेके उपायोंको जानते हैं ।।४५।। विशेषार्थ-यह उत्तम पात्रोंको दान देनेकी नौ विधियाँ हैं। अपने घरके द्वारपर यतिको देखकर 'मुझपर कृपा करें' ऐसी प्राथना करके तीन बार 'नमोऽस्तु' और तीन बार 'स्वामिन् तिष्ठ' कहकर ग्रहण करना प्रतिग्रह है। यतिके स्वीकार करने पर उन्हें अपने घरके भीतर ले जाकर निर्दोष बाधारहित स्थानमें ऊँचे आसनपर बैठाना दूसरी विधि है । साधुके आसन ग्रहण कर लेनेपर प्रासुक जलसे उनके पैर धोना और उनके पादजलकी वन्दना करना तीसरी विधि है। पैर धोने के बाद साधुका अष्ट द्रव्यसे पूजन करना चौथी विधि है। पूजनके बाद पंचांग प्रणाम करना छठी विधि है। उसके बाद चार शुद्धियाँ हैं । आहार देते १. 'संग्रहमुच्चस्थानं पादोदकमर्चनं प्रणामं च । वाक्कायमनःशुद्धिरेषणशुद्धिश्च विधिमाहः ॥'-पुरुषा. १६८ श्लो. । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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