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________________ चतुर्दश अध्याय ( पंचम अध्याय ) २४३ यत्नेन---संयमाविरोधेन । अतति--सर्वदा गच्छति । उक्तं च 'अतति स्वयमेव गृहं संयममविराधयन्ननाहूतः । योऽसावतिथिः प्रोक्तः शब्दार्थविचक्षणैः साधुः ॥' [ अमि. श्रा. ६।९५ ] नेत्यादि । उक्तं च 'तिथिपर्वोत्सवाः सर्वे त्यक्ता येन महात्मना। अतिथि तं विजानीयाच्छेषमभ्यागतं विदुः ॥' [ ]॥४२॥ अथ पात्रस्वरूपसंख्यानिर्णयार्थमाह - यत्तारयति जन्माब्धेः स्वाश्रितान्यानपात्रवत् । मुक्त्यर्थगुण सयोगभेदात्पात्रं त्रिधाऽस्ति तत् ॥४३॥ स्वाश्रितान-दानस्य कर्बनमन्तन सांयात्रिकादीश्च । त्रिधा। उक्तं च-- 'पात्रं त्रिभेदमुक्तं संयोगो मोक्षकारणगुणानाम् । सम्यग्दृष्टिरविरतो विरताविरतस्तथा विरतः ॥' [ पुरुषार्थ. १७१ ] ।।४३।।। १२ विशेषार्थ-साधु खाने के लिए नहीं जीता किन्तु जीवित रहने के लिए भोजन ग्रहण करता है। और जीवित रहने का उद्देश्य है सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्रको सम्पूर्ण करना । उनकी पूर्ति ही सिद्धि है। यतः शरीर के बिना वह सम्भव नहीं है और शरीर की स्थिति भोजनके बिना सम्भव नहीं है । कहा है-'शरीरकी स्थितिके लिए भोजन है। शरीर ज्ञानके लिए है। ज्ञान कर्मविनाशके लिए है। कर्मके विनाश होनेपर परमसुख होता है।' अतः उसे स्वयं सावधानीपूर्वक चलते हुए दाताके घर जाना पड़ता है ऐसे साधुको अतिथि कहते हैं। तथा तिथिसे मतलब होता है कोई निश्चित दिन निश्चित समय । वह जिसकी नहीं है वह अतिथि है अर्थात् जिसके आनेका काल नियत नहीं है। पूज्यपाद स्वामी ने अतिथि शब्दके यही दो अर्थ किये हैं। सोमदेव सूरिने एक नया ही अर्थ किया है । पाँचों इन्द्रियोंकी अपने-अपने विषय में प्रवृत्ति ही पाँच तिथियाँ हैं। और इन्द्रियोंकी अपने विषयमें प्रवृत्ति संसारका कारण है अतः उनसे जो मुक्त है वह अतिथि है ॥४२॥ पात्रका स्वरूप और भेद कहते हैं जो जहाजकी तरह अपने आश्रितोंको अर्थात् दानके कर्ता, करानेवाले और दानकी अनुमोदना करनेवालेको संसार समुद्रसे पार कर देता है वह पात्र है। मुक्ति के कारण या मुक्ति ही जिनका प्रयोजन है उन सम्यग्दर्शन आदि गुणोंके संयोगके भेदसे पात्रके तीन भेद हैं ।।४।। विशेषार्थ--जैसे समुद्र में स्थित जहाज अपने आश्रित नाविकोंको समुद्रसे पार कर देता है वैसे ही जो अपने आश्रितों को संसारसे पार करता है वह पात्र है । जो सम्यग्दर्शनादि गुण मुक्तिके कारण हैं उनके सम्बन्धके भेदसे पात्रके तीन भेद हैं ॥४३॥ १. धा मतम्, मु.। २. अविरतसम्यग्दष्टिविरताविरतश्च सकलविरतश्च--मु. । ३. 'संयममविनाशयन्नततीत्यतिथिः । अथवा नाऽस्य तिथिरस्तीत्यतिथिः अनियतकालागमन इत्यर्थः।' -स सि. ७।२१। ४. 'पञ्चेन्द्रियप्रवृत्त्यापास्तिथयः पञ्च कीर्तिताः । संसाराश्रयहेतुत्वात्ताभिर्मुक्तोऽतिथिर्भवेत् ॥' -सो. उपा. ८७८ श्लो. । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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