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________________ ६ चतुर्दश अध्याय ( पंचम अध्याय ) पुप्फंजलि खिवित्ता पयपुरदो वंदणं तदो कुज्जा। चइऊण अट्टरुद्दे मणसुद्धो होदि कायव्वा ।। णिठुर-कक्कसवयणाण वज्जणं तं वियाण वचिसुद्धि । सव्वत्थ संउडंगस्स होदि तह कायसुद्धी वि ॥ चोद्दसमलपरिसुई जं दाणं सोहिदूण जदणाए। संजदजणस्स दिज्जदि सा णेया एसणा सुद्धो ॥ [ वसु. श्रा. २२६-२३१ ] ॥४५॥ अथ देयद्रव्यविशेषनिर्णयार्थमाह पिण्डशुद्धयुक्तमन्नादिद्रव्यं वैशिष्टयमस्य तु। रागाद्यकारकत्वेन रत्नत्रयचयाङ्गता ॥४६॥ अन्नादि-आहारोषधावासपुस्तकपिच्छिकादि । चयाङ्ग-वृद्धिकारणम् । तदुक्तम् 'रागद्वेषासंयममददुःखभयादिकं न यत्कुरुते । द्रव्यं तदेव देयं सुतपःस्वाध्यायवृद्धिकरम् ॥' [ पुरुषार्थ. १७० ] ॥४६॥ अथ दातृलक्षणं तद्वैशिष्ट्यं चाह नवकोटिविशद्धस्य दाता दानस्य यः पतिः। भक्तिश्रद्धासत्त्वतुष्टिज्ञानालौल्यक्षमागुणाः ॥४७॥ समय आर्त रौद्र ध्यानका न होना मनःशुद्धि है। कठोर वचन न बोलना वचनशुद्धि है। सर्वत्र देख-भालकर सावधानतापूर्वक प्रवृत्ति करना कायशुद्धि है। चौदह दोषोंसे रहित आहारको यत्नपूर्वक शोधकर साधुके हस्तपुट में देना अन्नशुद्धि है। पूर्व के सभी आचार्योंने इन नौ उपायोंको स्वीकार किया है। इनकी विशेषता है आदर और भक्तिभावसे उक्त विधिका करना ॥४५|| आगे देने योग्य द्रव्य और उसकी विशेषता बतलाते हैं पहले अनगारधर्मामृतके पिण्डशुद्धिका कथन करनेवाले पाँचवें अध्यायमें कहा गया आहार, औषध, आवास, पुस्तक, पिच्छिका आदि द्रव्य अर्थात् देने योग्य हैं। और राग, द्वेष, असंयम, मद, दुःख आदिको उत्पन्न न करते हुए सम्यग्दर्शन आदिकी वृद्धिका कारण होना उस द्रव्यकी विशेषता है ॥४६॥ विशेषार्थ-आचार्य अमृतचन्द्रजीने भी कहा है कि जो राग-द्वेष, असंयम, मद, दुःख, भय आदि उत्पन्न नहीं करता और सुतप तथा स्वाध्यायकी वृद्धि करता है वही द्रव्य साधुको देनेके योग्य होता है। आचार्य अमितगतिने कहा है जिससे राग नष्ट होता है, धर्मकी वृद्धि होती है, संयम पुष्ट होता है, विवेक उत्पन्न होता है, आत्मामें शान्ति आती है, परका उपकार होता है तथा पात्रका बिगाड़ नहीं होता वही द्रव्य प्रशंसनीय होता है' ॥४६।। आगे दाताका लक्षण और उनकी विशेषता बतलाते हैं नौ कोटियोंसे विशुद्ध दानका जो स्वामी होता है, जो दान देता है वह दाता है। भक्ति, श्रद्धा, सत्त्व, तुष्टि, ज्ञान, अलोलुपता और क्षमा ये उसके गुण हैं ।।४७|| १. 'रागो निषद्यते येन येन धर्मो विवर्द्धते । संयमः पोष्यते येन विवेको येन जन्यते ।। आत्मोपशम्यते येन येनोपक्रियते परः । न येन नाश्यते पात्रं तदातव्यं प्रशस्यते ।'-अमित. श्रा. ८1८१-८२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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