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धर्मामृत ( सागार) अथानिरूपितस्वरूपस्यानुष्ठानं न स्यादिति सामायिकस्वरूपं निरूपयन्नाह
एकान्ते केशबन्धादिमोक्षं यावन्मुनेरिव ।
स्वं ध्यातुः सर्वहिंसादित्यागः सामायिकवतम् ॥२८॥ एकान्ते-विविक्तस्थाने । उक्तं च
'एकान्ते सामयिकं निर्व्याक्षेपे वनेषु वास्तुषु च ।
चैत्यालयेषु वापि परिचेतव्यं प्रसन्नधिया ॥' [ रत्न. श्रा. ९९ ] केशबन्धआदिर्येषां मुष्टिबन्धवस्त्रग्रन्थ्यादीनां गृहीतनियमकालावच्छेदहेतूनां तन्मोचनं यावत् । सामायिक हि चिकीर्षुर्यावदयं केशबन्धो वस्त्रग्रन्थ्यादिर्वा मया न मुच्यते तावत्साम्यान्न चलिष्यामीति प्रतिज्ञां करोति । ९ उक्तं च
'मूर्धरुहमुष्टिवासो बन्धं पर्यङ्कबन्धनं चापि । स्थानमुपवेशनं वा समयं जानन्ति सर्वज्ञाः ॥' [ रत्न. श्रा. ९८ ] -सर्वारम्भपरिग्रहाग्रहरहितत्वाद्यतिना तुल्यस्य श्रावकस्य । उक्तं च'सामयिके सारम्भाः परिग्रहा नैव सन्ति सर्वेऽपि ।
चेलोपसृष्टमुनिरिव गृही तदा याति यतिभावम् ॥' [ र. श्रा. १०२] स्वं ध्यातुः-आत्मानं साधुत्वेन ताच्छील्येन वा ध्यायतः, अन्तर्मुहूर्तमाधर्मध्याननिष्ठस्येत्यर्थः । सर्वहिंसादित्याग:-सर्वत्र सर्वेषां च हिंसादीनां प्रमत्तयोगभाविनां प्राणव्यपरोपणादि-पञ्चपापानां त्यागः परिहारः सर्वत्रेति व्याख्यानाद्देशावकाशिकादस्य भेदः सूच्यते । उक्तं च
'आसमयमुक्तिमुक्तं पञ्चाधानामशेषभावेन । सर्वत्र च सामयिकाः सामयिकं नाम शंसन्ति ॥ [ र. श्रा. ९७ ]
है । अन्तके दोनों अतिचार अज्ञानसे या उतावलेपनसे होते हैं। सब जगह यह लक्षण लगा लेना चाहिए कि व्रतकी अपेक्षा रखते हुए एक अंशके भंगको अतिचार कहते हैं ॥२७॥
अब सामायिक शिक्षाव्रतका स्वरूप कहते हैं
केशबन्ध आदिके छोड़ने पर्यन्त एकान्त स्थानमें मुनिके समान अपनी आत्माका ध्यान करनेवाले शिक्षा व्रती श्रावकका जो सर्वत्र समस्त हिंसा आदि पाँचों पापोंका त्याग है उसे सामायिक व्रत कहते हैं ॥२८॥
विशेषार्थ-सामायिक शब्द सम और आय शब्दोंके मेलसे बना है। 'सम' अर्थात् राग-द्वेषसे विमुक्त होकर जो 'आय' अर्थात् ज्ञानादिका लाभ होता है जो कि प्रशम सुख रूप है उसे समाय कहते हैं । समाय ही सामाय है। सामाय जिसका प्रयोजन है वह सामायिक है। अर्थात् राग-द्वेषके कारण उपस्थित होनेपर या जो पदार्थ राग-द्वेषके कारण हैं उनमें मध्यस्थता रखना, राग-द्वेष नहीं करना सामायिक है। अथवा जिन भगवान्की सेवाके उपदेशको समय कहते हैं। उसमें नियुक्त कर्मको सामायिक कहते हैं। इस तर जिन भगवानका अभिषेक, पूजा, स्तुति, जप आदि सामायिक है और निश्चयसे अपनी आत्माका ध्यान ही सामायिक है । इस प्रकार सामायिकरूप व्रतको सामायिक व्रत कहते हैं । यह सामायिक एकान्त स्थानमें की जाती है। इसका करनेवाला उस समय समस्त आरम्भ
और परिग्रहके आग्रहसे रहित होता है इसलिए उसे मुनिके समान कहा है । मुनि जीवनपर्यन्तके लिए समस्त हिंसा आदि पाँच पापोंका त्याग करता है। किन्तु सामायिक व्रती जितने समय तक आत्मध्यानमें लीन होता है उतने समय तक सर्वत्र पाँचों पापोंका त्याग
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