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________________ चतुर्दश अध्याय (पंचम अध्याय ) २२९ अथ देशावकाशिकव्रतातिचारपरिहारार्थमाह पुद्गलक्षेपणं शब्दश्रावणं स्वाङ्गदर्शनम् । प्रेषं सोमबहिर्देशे ततश्चानयनं त्यजेत् ॥२७॥ पुद्गलक्षेपणं--परिगृहीतदेशाबहिः स्वयमगमनात कार्याथितया व्यापारकराणां चोदनाय लोष्ठादिप्रेरणम् । शब्दश्रावणं-शब्दस्याभ्युत्काशिकादेः श्रावणमाह्वनीयानां श्रोत्रेऽनुपातनम् शब्दानुपातनं नामातिचारमित्यर्थः ॥२॥ स्वाङ्गदर्शनं-शब्दोच्चारणं विना आह्वानीयानां दृष्टौ स्वरूपस्यानुपातनं रूपानुपाताख्यमतिचारम् । एतत्त्रयं मायावितयाऽतिचारत्वं याति ॥३॥ प्रेषं-मर्यादीकृतदेशे स्थित्वा ततो बहिः प्रेष्यं प्रत्येवं कुविति व्यापारणम् । देशावकाशिकवतं हि मा भूद्गमनागमनादिव्यापारजनितः प्राण्युपमर्द इत्यभिप्रायेण गृह्यते । स तु स्वयं कृतोऽन्येन कारित इति न कश्चित्फलविशेषः । प्रत्युत स्वयं गमने ईर्यापथविशुद्धेर्गुणः । परस्य पुनरनिपुणत्वादीसिमित्यभावे दोष इति प्रेष्यप्रयोगं नाम चतुर्थमतिचारं त्यजेदिति सर्वत्र योज्यम् ।।४॥ ततश्चानयनं.-सीमबहिर्देशादिष्ट वस्तुनः प्रेष्येण विवक्षितक्षेत्रे प्रापणम् । चशब्देन सीमबहिर्देश स्थितं प्रेष्यं प्रतीदं कुवित्याज्ञापनं वा । एतो चाव्युत्पन्नबद्धितया सहसाकारादिना बातिचारी स्तः। १२ सर्वत्र च 'सापेक्षस्य व्रते हि स्यादतिचा शभजनमित्युपजीव्यम् ॥२७॥ व्रतोंसे यदि शिक्षा मिलती है तो मुनिपद धारणकी शिक्षा मिलती है। सामायि कसे ध्यान करनेकी, प्रोषधोपवाससे उपवास करनेकी और भोगोपभोग परिमाणसे अल्प भोगोपभोगकी तथा अन्तके अतिथिसंविभाग व्रतसे आहार ग्रहण करनेकी शिक्षा मिलती है। सोमदेवजीने इसका स्वरूप बतलाते हुए कहा है-'इस प्रकार दिशाओंका और देशका नियम करनेसे बाहरकी वस्तुओंमें लोभ, उपभोग, हिंसा आदिके भाव नहीं होते और उनके न होनेसे चित्त संयत रहता है । जो गृहस्थ इन गुण व्रतोंका पालन प्रयत्न पूर्वक करता है वह जहाँ-जहाँ जन्म लेता है वहीं उसे आज्ञा ऐश्वर्य आदि मिलते हैं' ।२६।। देशावकाशिक व्रतके अतिचारोंको त्यागनेकी प्रेरणा करते हैं देशावकाशिक व्रतकी निर्मलताको चाहनेवाला श्रावक मर्यादा किये हुए प्रदेशसे बाहर पत्थर आदि फेंकनेको, शब्दके सुनानेको, अपना शरीर दिखानेको, किसी मनुष्यके भेजनेको और मर्यादाके बाहरसे किसीको बुलानेको छोड़े ।।२७॥ विशेषार्थ-मर्यादा किये हुए देशसे बाहर स्वयं न जा सकनेसे कार्यके प्रयोजनवश काम करनेवाले मनुष्योंको कार्य के लिए सावधान करनेके अभिप्रायसे पत्थर आदि फेंकना प्रथम अतिचार है । मर्यादाके बाहरसे जिन्हें बुलाना है, खाँसने आदिके द्वारा उनके कानोंमें शब्द पहुँचाना दूसरा अतिचार है । शब्दका उच्चारण किये बिना जिनको बुलाना है उनकी दृष्टि में अपनी सूरत आदि ला देना तीसरा अतिचार है। ये तीनों मायावीपनेके कारण अतिचार हैं । स्वयं मर्यादा किये हुए क्षेत्रमें रहकर उससे बाहर किसीको 'तुम यह करो' ऐसा कहकर भेजना चतुर्थ अतिचार है। देशावकाशिक व्रत इस अभिप्रायसे लिया जाता है कि जाने आने आदि व्यापारसे प्राणियोंका घात न हो। वह चाहे स्वयं करे या दूसरेसे करावे उसमें कोई अन्तर नहीं पड़ता। बल्कि स्वयं जानेमें तो ईर्यापथ शुद्धि सम्भव है। दूसरा तो यह जानता ही नहीं इसलिए ईर्या समितिके अभावमें दोष ही लगता है अतः प्रेष्य प्रयोग नामक चतुर्थ अतिचारको छोड़ना चाहिए । यह कथन सर्वत्र लगा लेना चाहिए । मर्यादाके बाहरसे किसीको भेजकर इष्ट वस्तको विवक्षित क्षेत्रमें पहँचाना पाँचवाँ अतिचार है। 'च' शब्दसे सीमाके बाहर स्थित आदमोको 'ऐसा करो' यह आज्ञा देना भी अतिचार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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