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________________ २२८ धर्मामृत ( सागार) __ सन्तुष्टः-सीमभ्यो बहिनिगृहीततृष्णः । दिग्वतवदस्यापि नियमितदेशाद् बहिर्लोभनिग्रहेण हिंसादीनां च सर्वशो निवर्तनेनात्र फलवत्त्वादमुत्राज्ञैश्वर्यसंपादकत्वाच्च सुतरां करणीयत्वम् । तदुक्तम् - 'दिक्षु सर्वास्वधश्चोर्ध्वं देशेषु निखिलेषु च । एतस्यां दिशि देशेऽस्मिन्नियतैव गतिर्मम ।। दिग्देशे नियमादेवं ततो बाह्येषु वस्तुषु । हिंसा-लोभोपभोगादिनिवृत्तेश्चित्तयन्त्रणा ।। रक्षन्निमं प्रयत्नेन गुणवतयमं गृही। आजैश्वयं लभत्येष यत्र यत्रोपजायते ॥ [ सो. उपा. ४४१-४५१] शिक्षाव्रतत्बञ्चास्य शिक्षाप्रधानत्वात्परिमितकालभावित्वाच्चोच्यते । न खल्वेतत् दिग्व्रतवद्यावज्जीविकमपीष्यते । यत्तु तत्त्वार्थादौ गुणवतत्वमस्य श्रुयते तदिग्वतसंक्षेपणलक्षणत्वमात्रस्यैव विवक्षितत्वाल्लक्ष्यते । तदुक्तम्-. १२ 'तत्रापि च परिमाणं ग्रामाणां भवनपाटकादीनाम् । प्रविधाय नियतकालं करणीयं विरमणं देशात् ।।' [ पुरुषार्थ. १३९ ] दिग्वतसंक्षेपकरणं चाणुव्रतादिसंक्षेपकरणस्याप्युपलक्षणं द्रष्टव्यम् । एषामपि संक्षेपस्यावश्यकर्तव्य१५ त्वात् । प्रतिव्रतं च संक्षेपकरणस्य भिन्नव्रतत्वे 'गुणाः स्युदिशेति संख्याविरोधः स्यात् । 'तिष्ठन्' 'लक्षण हेत्वोः क्रियायाः' इति शतच । कालपरिच्छित्या-नियतदेशे संतुष्टतयाऽवस्थानेन देशावकाशिकवतित्वपरिणामस्य लक्ष्यमाणत्वात् । देशावकाशिकी भवतीत्यध्याहारः ॥२६॥ जानेसे देशावकाशिकके द्वारा महाव्रतोंकी सिद्धि होती है। टीकामें पं. आशाधरजीने लिखा है--इस व्रतको शिक्षाप्रधान होनेसे तथा परिमित कालके लिए होनेसे शिक्षाव्रत कहते हैं। यह व्रत दिग्वतकी तरह जीवनपर्यन्तके भी लिए नहीं होता है। तत्त्वार्थ सूत्र आदिमें जो इसे गुणव्रत कहा गया है वह दिग्व्रतको संक्षिप्त करनेवाला होने मात्रकी विवक्षाको लेकर कहा है। अमृतचन्द्रजीने कहा है-'दिग्व्रतमें भी ग्राम, भवन, मुहाल आदिका कुछ समयके लिए परिमाण करना देशविरतिव्रत है वह करना चाहिए। दिग्व्रतको संक्षिप्त करना अन्य गुणव्रतोंके भी संक्षेप करनेका उपलक्षण होना चाहिए। क्योंकि जैसे दिग्व्रतको परिमित करके देशव्रत बना इसी तरह अन्य गुणोंको भी परिमित करना आवश्यक है। और इसी तरह प्रत्येक व्रतके संक्षेपको भिन्न व्रत मानने से बारह व्रतोंकी संख्याका विरोध होता है।' श्वेताम्बराचार्य हेमचन्द्रने भी अपने योगशास्त्र ( ३२८४) की टीकामें बिलकुल यही बात कही है। असल में तो दिव्रतसे लेकर प्रोषधोपवासपर्यन्त जितने भी व्रत हैं वे सब अणुव्रतोंके क्षेत्रको सीमित करके उन्हें महाव्रतका रूप देनेके लिए ही हैं। दिग्वतके द्वारा जीवन-भरके लिए क्षेत्रको सीमित करके मर्यादाके बाहर जैसे अणुव्रत महाव्रतकी संज्ञाको प्राप्त होते हैं उसी तरह कुछ समयके लिए दिव्रतकी सीमाको मर्यादित करके देशव्रतके द्वारा भी वही किया जाता है । सीमित मर्यादामें भी अनर्थदण्डका-बिना प्रयोजन हिंसादान आदिका निरोध करके अणुव्रतोंको ही पुष्ट किया जाता है । पाँच ही अणुव्रत हैं और पाँच ही अनर्थदण्ड हैं । एक-एकके त्यागके साथ एक-एककी संगति बैठायी जा सकती है। सामायिकमें भी अमुक समय तक पाँचों पापोंका सर्वथा त्याग रहता है। प्रोषधोपवास में समयकी मर्यादा बढ़ जाती है। इस तरह ये सब व्रत अणुव्रतको संकुचित करके उसे महाव्रतका रूप देते हैं। अन्तके शिक्षा १.धः प्रोर्ध्व-। २. न्नियत्येवं-सो. उपा.। ३.न्निदं- ४. तत्रयं-सो. उपा. । . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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