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________________ चतुर्दश अध्याय ( पंचम अध्याय ) २३१ समस्तरागद्वेषविमुक्तस्य सता अयो ज्ञानादीनां लाभः प्रशमसुखरूपः समायः। समाय एव समायः प्रयोजनमस्येति वा सामायिक रागद्वेषहेतुषु मध्यस्थतेत्यर्थः । उक्तं च 'त्यक्तार्तरोद्रध्यानस्य त्यक्तसावद्यकर्मणः।। मुहूर्त समता या तां विदुः सामायिकं ब्रतम् ॥ [ योगशा. ३।८२] अथवा समय आप्तसेवोपदेशस्तत्र नियुक्तं कर्म सामयिकम् । व्यवहारेण जिनस्नपना स्तुतिजपाः, निश्चयेन च स्वात्मध्यानमेव । तदुक्तम् । 'आप्तसेवोपदेशः स्यात्समयः समयार्थिनाम् । नियुक्तं तत्र यत्कर्म तत्सामायिकमूचिरे ॥' [ सो. उपा. ४६० ] तथा 'होऊण सुई चेइवगिहम्मि सगिहेव चेइयाहिमुहो । अण्णत्थ सुण्णपएसे पुव्वमुहो उत्तरमहो वा ।। जिणवयण-धम्म-चेदिय-परमेट्ठिजिणालयाण णिच्चं पि । जं वंदणं तिकालं कीरई सामाइयं तं खु ।। काउस्सग्गम्मि ठिदो लाहालाहं च सत्तुमित्तं च । संजोगविप्पओगं तण-केचण-चंदणं वासि ॥ करता है। देशावकाशिक व्रती तो की हुई मर्यादासे बाहरके क्षेत्रमें ही पाँचों पापोंका त्याग करता है किन्तु सामायिक व्रती सर्वत्र पाँचों पापोंका त्याग करता है यह इन दोनों व्रतोंमें अन्तर है । जो सामायिक करना चाहता है वह सामायिकसे पहले यह नियम करता है कि जबतक मेरे बँधे केश न खलें या वस्त्रकी गाँठ न खोलूँ या बंधी मुट्ठी न खोलूँ तबतक मैं साम्यभावसे विचलित नहीं हूँगा अर्थात् उतने समय तक मैं सामायिक करूँगा। आचार्य समन्तभद्र स्वामीने केशोंका बन्ध, मुट्ठीका बन्ध, वस्त्रका बन्ध, पालथी बन्ध, स्थान और बैठनेको समय कहा है। अर्थात् सामायिकमें ये सब आवश्यक होते हैं। उन्होंने चित्तको चंचल करनेवाले कारणोंसे रहित एकान्त स्थान, जैसे वन, मकान या चैत्यालयमें प्रसन्न मनसे सामायिक करनेका निर्देश किया है। तथा उपवास और एकाशनमें भी सामायिक करनेका विधान किया। वैसे तो नियमित रूपसे प्रतिदिन आलस्य छोडकर सामायिक करना ही चाहिए क्योंकि वह पाँचों अणुव्रतोंकी पूतिमें कारण है । यह भी कहा है कि सामायिकके काल में न कोई आरम्भ होता है और न पहने हुए वस्त्रके सिवाय कोई परिग्रह होती है। इसलिए उस समय गृहस्थ उस मुनिके तुल्य होता है जिसपर किसीने वस्त्र लपेट दिया हो। आचार्य अमृतचन्द्रने भी राग-द्वेषको त्यागकर समस्त द्रव्यों में साम्यभाव धारण करके बार-बार सामायिक करनेका विधान किया है क्योंकि सामायिक तत्त्वकी उपलब्धिका मूल है। अर्थात् आत्मतत्त्वकी उपलब्धिका मूल कारण सामायिक है । रातके अन्त में अर्थात् प्रातः और दिनके अन्त में अर्थात् सन्ध्याको तो सामायिक अवश्य करना चाहिए । अन्य समयमें भी करनेसे कोई हानि नहीं है, बल्कि लाभ ही है। यह भी कहा है कि यद्यपि सामायिक करनेवाले गृहस्थके चारित्रमोहका उदय होता है फिर भी उस समयमें समस्त सावद्य योगका त्याग होनेसे महाव्रत १. 'रागद्वेषत्यागान्निखिलद्रव्येषु साम्यमवलम्ब्य । तत्त्वोपलब्धिमूलं बहुशः सामायिक कार्यम् ॥-पुरुषार्थ. १४८ श्लो.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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