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चतुर्दश अध्याय ( पंचम अध्याय )
' न चातिमात्रमेवान्नं आमदोषाय केवलम् । द्विष्टं विष्टं भिदग्धामगुरुरुक्ष हिमाशुचि ॥ विदाहि शष्कमत्यम्बुप्लुतं चान्नं न जीयंते ।' [
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तथा यावतांशेन तत्सचेतनं तावता परलोकमप्युपहन्ति । पृथुकादेर्दुष्प्रक्वतया संभवत्सचेतनामयत्वात्यदत्वेनाचेतनमिति भुञ्जानस्यातिचारश्चतुर्थः । अभिषवं सौवीरादिद्रवं वृष्यं वा । अयमप्यतिक्रमादिनाऽतिचारः पञ्चमः । चारित्रसारे सनित्ताद्याहाराणां पुनरतिचारत्वोपपादनार्थमिदमुक्तम्- 'एतेषामभ्यवहरणे सचित्तोपयोग इन्द्रियमदवृद्धिर्वातादिप्रकोपो वा स्यात् । तत्प्रतिकारविधाने पापलेपो भवति । अतिथयश्चैनं परिहरेयुरिति । अत्राह स्वामी
'विषयविषतोऽनुपेक्षानुस्मृति रतिलौल्यमतितृषानुभवो । भोगोपभोगपरिमाव्यतिक्रमाः पञ्च कथ्यन्ते ॥' [ र. श्री. ९० ]
१. किंचित् सचे तनावयवत्वात्पक्वत्वाच्च चेतनाचेतनमिति.... भ. कु. च ।
२. - २ल. श्री० ९० श्लो. ।
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गया हो उसे दुष्पक्व कहते हैं या जो दुष्ट रूपसे पका हो या कम पका हो उसे दुष्पक्व कहते हैं । अधपके चावल, जौ, गेहूँ, चिउड़ा आदि खानेसे पेट में आँव हो जाती है अतः ऐसा भोजन इस लोक सम्बन्धी बाधाका कारण होता है । तथा जितने अंश में वह सचेतन होता है उतने अंश में परलोकका घात करता है। इस तरह दुष्पक्वका कुछ अंश सचेतन होने से कुछ अंश पक्व होनेसे वह चेतन भी होता है और अचेतन भी होता है उसका भक्षण चतुर्थ अतिचार है । जो पतले या गरिष्ट पदार्थ हैं उनका भक्षण अभिषव नामक पाँचवाँ अतिचार है । वैद्यक शास्त्र के अनुसार भी इस तरहका भोजन अजीर्णं और आमकारक होता है । चारित्रसार में सचित्तादि आहारको अतिचार बतलाने में यह युक्ति दी है कि इनके भक्षण में सचित्तका उपयोग होता है, इन्द्रियोंके मद में वृद्धि होती है । अथवा वात आदिका प्रकोप होता है और उनका इलाज करनेपर पाप लगता है । तथा मुनि भी सचित्त भोजन नहीं करते हैं । प्रायः सर्वत्र भोगोपभोग परिमाणव्रतके ये ही अतिचार कहे हैं । किन्तु स्वामी समन्तभद्रके द्वारा कहे अतिचार बिलकुल भिन्न हैं जो इस प्रकार हैं- विषके समान विषयों में आदर होना । अर्थात् विषय भोगसे विषय भोग सम्बन्धी वेदनाका प्रतीकार हो जानेपर भी पुन: इच्छित नारीका आलिंगन आदि करते रहना प्रथम अतिचार है । विषय भोगसे वेदनाका प्रतिकार हो जानेपर भी बार-बार विषयोंके सौन्दर्यका उनकी सुखसाधनता आदिका चिन्तन करना। यह अतिआसक्तिका कारण होनेसे दूसरा अतिचार है । वेदनाका प्रतिकार हो जानेपर भी पुनः पुनः उसको भोगनेकी आकांक्षा तीसरा अतिचार है । स्त्रीभोग आदिके प्राप्त होनेकी अतिलालसा यह चतुर्थ अतिचार है । जब नियत समयपर भोग-उपभोगका अनुभव करता है तब भी अत्यन्त आसक्तिसे करता है, वेदनाके प्रतिकारकी भावनासे नहीं करता। अतः यह पाँचवाँ अतिचार है । इनका नाम क्रमशः विषयविषसे अनुपेक्षा, अनुस्मृति, अतिलौल्य, अतितृषा और अतिअनुभव है । ये अतिचार भी 'परेऽप्यूह्मास्तथात्ययाः ' इस पूर्व कथन से संगृहीत हो जाते हैं। सोमदेवाचार्यने भी पूर्ववत् ही अतिचार कहे हैंजो भोजन कच्चा है या जल गया (दुष्पक्व ) है, जिसका खाना निषिद्ध है, जो जन्तुओंसे सम्बद्ध है, मिश्र है और बिना देखा है ऐसे भोजनको खाना भोगोपभोग परिमाण व्रतकी
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