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________________ २२० धर्मामृत ( सागार) ___ कोट्टपालादि । आदिशब्देन गुप्तिपाल-वीतपाल-शौल्किकादि । क्रूराः-प्राणिघातकर्कशाः। उक्तं च 'भोगोपभोगमूला विरताविरतस्य नान्यतो हिंसा। अधिगम्य वस्तु तत्त्वं स्वशक्तिमपि तावपि त्याज्यौ ।' [ पुरुषार्थ. १६१ ] ॥१९॥ अथ भोगोपभोगपरिमाणवतातिचारपञ्चकं लक्षयति सचित्तं तेन संबद्धं संमिश्र तेन भोजनम् । दुष्पकमभिषवं भुञ्जानोऽत्येति तद्वतम् ॥२०॥ सचित्तं चेतनावद्रव्यं हरितकायमपक्वकर्कट्यादि । त्रसबहुघातेत्यादिना निषिद्धेऽप्यत्र प्रवृत्तौ भङ्गसद्भावेऽप्यतिचाराभिधानं व्रतसापेक्षस्याप्रणिधानातिक्रमादिना प्रवृत्ती द्रष्टव्यमिति प्रथमः । तेन संबद्धं-सचित्तेनो९ पश्लिष्टं सचेतनवृक्षादिसंबद्धं गोदादिकं पक्वफलादिकं वा सचित्तान्तर्बीजं खजूराम्रादि च। तद्भक्षणं हि सचित्तभोजनवर्जकस्य प्रमादादिना सावद्याहारप्रवृत्तिरूपत्वादतिचारः । अथवा बीजं त्यक्ष्यामि तस्यैव सचेतनत्वात कटाहं तु भक्षयिष्यामि तस्याचेतनत्वादिति बुद्ध्या पक्वं खजूरादिफलं मुखे प्रक्षिपतः सचित्त१२ वर्जकस्य सचित्तप्रतिबद्धाहारोऽसो द्वितीयः । संमिश्रं तेन सचित्तेन व्यतिकीर्ण विभक्तुमशक्यं सूक्ष्मजन्तुक मित्यर्थः। अथवा सचित्तशबलं तत्संमिश्रं यथा आर्द्रकदाडिमबीजचिर्भटादिमिश्रं पूरणादिकं तिलमिश्रं वा यवधानादिकम् । अयमपि पूर्ववदतीचारस्तृतीयः । दुष्पक्वं-सान्तस्तण्डुलभावन अतिक्लेदनेन वा दुष्टं पक्वं १५ मन्दपक्वं वा दुष्पक्वम् । तच्चार्धस्विन्नं-पृथुकतण्डुलयवगोधूमस्थूलमण्डकफलादिकमामदोषावहत्वेनैहिकप्रत्यवायकारणम् । उक्तं च विशेषार्थ-टीकामें 'आदि' शब्दसे गुप्तिपाल, बीतपाल और शौल्किकके कार्यका निषेध किया है । इनमें से प्रारम्भके दो पद तो सुरक्षा सम्बन्धी प्रतीत होते हैं और अन्तिम कराधिकारीका पद है। इनमें कड़ाई करना पड़ता है। अमृतचन्द्रजीने भोगोपभोगको ही त्याज्य कहा है क्योंकि वही हिंसाका मूल है ॥१९॥ आगे भोगोपभोग व्रतके पाँच अतिचारोंको कहते हैं सचित्त भोजनको, सचित्तसे सम्बन्ध रखनेवाले भोजनको, सचित्तसे मिले हुए भोजनको, अधपके या अधिक पके भोजनको और गरिष्ट भोजनको करनेवाला श्रावक भोगोपभोग परिमाणव्रतमें अतिचार लगाता है ॥२०॥ विशेषार्थ-जिसमें चेतना हो ऐसी हरितकाय वनस्पतिको सचित्त कहते हैं। यद्यपि त्रसबहुघात इत्यादि कथनसे उसका निषेध हो जानेपर भी उसमें प्रवृत्ति होनेपर व्रतके भंगकी बात आती है। फिर भी व्रतको अपेक्षा रखते हुए ध्यान न रहनेसे प्रवृत्ति होनेपर सचित्त भोजनको अतिचार कहा है। यह प्रथम अतिचार है। सचित्त वृक्ष आदिसे सम्बद्ध गोंद आदिको या पके फल आदिको या जिसके अन्दरके बीज सचित्त हैं ऐसे खजूर, आम आदिको सचित्तसम्बद्ध कहते हैं। सचित्त भोजनके त्यागीके द्वारा उनका भक्षण प्रमाद आदिवश ही होता है अतः सावद्य आहारमें प्रवृत्ति होनेसे उसे अतिचार कहा है 'इसके बीज ही तो सचित्त हैं उन्हें छोड़ दूंगा। शेष भाग खाऊँगा वह तो अचित्त है' इस बुद्धिसे पके हुए खजूर आदिके फलको मुखमें रखनेवाले सचित्तत्यागीके सचित्तसम्बद्ध आहार नामका दूसरा अतिचार होता है। सचित्तसे मिले हुएको, जिसे अलग करना शक्य नहीं है अर्थात् जिसमें सूक्ष्म जन्तु हैं उसे सचित्त सम्मिश्र कहते हैं। जैसे अदरक, अनारके बीज और चिर्भटी आदिसे मिले हुए पूड़े या तिल मिले हुए यवधान । यह भी पूर्ववत् तीसरा अतिचार है । जिसके अन्दर चावलका कुछ कच्चा अंश रह गया हो या अत्यन्त पक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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