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________________ चतुर्दश अध्याय ( पंचम अध्याय) २१७ उक्तं च 'यदनिष्टं तद् व्रतयेद्यच्चानुपसेव्यमेतदपि जह्यात् । अभिसन्धिकृता विरतिविषयाद्योगाद् व्रतं भवति ॥' [ र. श्रा. ८६ ]॥१५॥ अथोक्तमेवार्थ संव्यवहारप्रसिद्धयर्थं श्लोकत्रयेणाह 'नालोसूरणकालिन्दद्रोणपुष्पादि वर्जयेत् । आजन्म तद्भजां शल्पं फलं घातश्च भूयसाम् ॥१६॥ नालीत्यादि । 'यदन्तःसुषिरप्रायं हेयं नालीनलादि तत् । अनन्तकायिकप्रायं वल्लीकन्दादि च त्यजेत् ॥' [सो. उपा. ३२९ ] ॥१६॥ अनन्तकाया:--साधारणशरीरिणः । उक्तं च कि उनकी ओर कभी भी मनकी प्रवृत्ति जा सकती है इसलिए उनका व्रत ले लेनेसे ही इष्ट फलकी प्राप्ति होती है । रत्नकरण्ड श्रावकाचारमें भी कहा है कि जो अनिष्ट हो उसका व्रत लेवे और जो सेवनके अयोग्य हो उसे भी छोड़े, क्योंकि योग्य विषयसे अभिप्रायपूर्वक विरत होनेसे तो व्रत होता है । तथा अल्पफल और बहुघात होनेसे मूली, अदरक, मक्खन, नीम और केतकीके फूलको भी त्याज्य कहा है। पूज्यपाद स्वामीने भी रत्नकरण्डके ही कथनका अनुसरण किया है। किन्तु अनिष्टको स्पष्ट करते हुए कहा है कि सवारी और आभरण में मझे इतना ही इष्ट है इस तरह अनिष्टसे निवत्त होना चाहिए। यह निवतन कुछ कालके लिए भी होता है और जीवन पर्यन्तके लिए भी होता है।' चारित्रसारमें पूज्यपादका ही अनुसरण है । सर्वार्थसिद्धिमें अनुपसेव्यकी चर्चा नहीं है। चारित्रसारमें चित्र-विचित्र वेष, वस्त्र, आभरण आदिको अनुपसेव्य कहा है। अमृतचन्द्रजीने पुरुषार्थ सिद्धयुपायमें (१६२-१६५ श्लो.) भी अनन्तकायको और मक्खनको त्याज्य कहा है और लिखा है कि जो परिमित भोगोंसे सन्तुष्ट होकर बहुत-से भोगोंको छोड़ देता है वह बहुत-सी हिंसासे विरत होता है अतः उसके विशिष्ट अहिंसा होती है। सोमदेवने भी अपने उपासकाध्ययनमें प्याज, केतकी और नीमके फूल तथा सूरणको आजन्म त्याज्य कहा है ।।१५।। आगे उक्त कथनको तीन श्लोकोंके द्वारा कहते हैं धर्मका अभिलाषी श्रावक नाली, सूरण, कलींदा, द्रोण पुष्प आदि जीवन पर्यन्त छोड़े। क्योंकि उनको खानेवालोंका फल तो थोड़ा होता है अर्थात् जितना समय खाने में लगता है उतने समय तक ही स्वाद आता है किन्तु उनके खानेसे उनमें रहनेवाले बहुत-से जीवोंका घात होता है ॥१६॥ विशेषार्थ-अमृतचन्द्रजीने अनन्तकाय वनस्पतियोंके त्यागपर जोर दिया है। क्योंकि एकके मारनेपर सब मर जाते हैं। सोमदेवजीने भी अनन्तकायिक नाली, लता, कन्द आदिका निषेध किया है ॥१६॥ उक्त कथनको ही व्रतकी दृढ़ताके लिए पुनः विशेष रूपसे कहते हैं१. 'पलाण्डुकेतकीनिम्बसुमनःसूरणादिकम् । त्यजेदाजन्म तद्रूपबहुप्राणिसमाश्रयम् ॥' -सोम. उपासका., ७६२ श्लो, २. रत्न. श्रा. ८५-८६ श्लो.। ३. सर्वा. सि. ७।२१ । २-२८ www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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