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धर्मामृत ( सागार) अनन्तकायाः सर्वेऽपि सदा हेया दयापरैः । यदेकमपि तं हन्तुं प्रवृत्तो हन्त्यनन्तकान् ॥१७॥ 'एकमपि प्रजिघांसुनिहन्त्यनन्तान् यतस्ततोऽवश्यम् । करणीयमशेषाणां परिहरणमनन्तकायानाम् ॥ [ पुरुषा. १६२ ] ॥१७॥ आमगोरससंपृक्तं द्विदलं प्रायशोऽनवम् ।
वर्षास्वदलितं चात्र पत्रशाकं च नाहरेत् ॥१॥ द्विदलं-मुदगमाषादि । उक्तं च
'आमगोरससंपृक्त-द्विदलादिषु जन्तवः।
दृष्टाः केवलिभिः सूक्ष्मास्तस्मात्तानि विवर्जयेत् ॥' [ योगशा. ३१७१ ] अनवं-पुराणम् । प्रायगृहणात्पुराणस्यापि चिरकालकृष्णीभूतकुलित्यादिरदृष्टजन्तुसम्मूर्छनस्याप्रतिषेधः । उक्तं च
दयालु श्रावकोंको सदा सभी अनन्तकाय वनस्पति त्यागनी चाहिए, क्योंकि उनमें से जो एक भी संख्यावाली अनन्तकाय वनस्पतिको खाने आदिके द्वारा मारने में प्रवृत्त होता है वह अनन्त जीवोंका घात करता है ॥१७॥
विशेषार्थ-जिनमें अनन्त जीवोंका आश्रय होता है उन्हें अनन्तकाय कहते हैं। मूल आदिसे पैदा होनेवाली वनस्पति अनन्तकाय होती है। इसके सात प्रकार हैं-एक जो मूलसे पैदा होती है जैसे अदरक, हल्दी वगैरह। दूसरी जो अग्र भाग बोनेसे पैदा होती है जैसे नेत्रबाला । तीसरी जो पर्वसे पैदा होती है जैसे ईख, बेंत वगैरह । चौथी कन्दसे पैदा होती है जैसे प्याज, सूरण वगैरह । पाँचवीं जो स्कन्धसे पैदा होती है, जैसे ढाक, सलई वगैरह । छठी, जो बीजसे पैदा होती है, जैसे गेहूँ, धान वगैरह । सातवीं सम्मूर्छिम, जो नियत बीजके अभावमें अपने योग्य पुद्गलोंसे ही शरीर प्राप्त करती है जैसे घास वगैरह । गोम्मटसारमें कहा है कि ये वनस्पतियाँ प्रत्येक भी होती हैं और अनन्तकाय भी होती हैं। उनके आश्रयसे उनमें निगोदिया जीवोंका आवास रहता है। धवला टीकामें कहा है कि प्रत्येक शरीर वनस्पतिके आश्रयसे बादर निगोद जीव रहते हैं ऐसा आगममें कहा है। जैसे थूहर, अदरख, मूली वगैरह । अतः इनका भक्षण नहीं करना चाहिए। क्योंकि निगोदिया साधारणकायके अनन्त जीवोंका एक साथ जन्म और एक साथ मरण होता है । एकके मरने पर सब जीव मर जाते हैं ॥१७॥
दयालु श्रावक कच्चे अर्थात् जिसे आगपर नहीं पकाया गया है ऐसे दूध, दही और बिना पकाये दूधसे तैयार हुए मठेके साथ मिले हुए द्विदल अर्थात् मूंग, उड़द आदि धान्यको न खावे। तथा प्रायः करके पुराने द्विदलको न खावे । तथा वर्षा ऋतु में बिना दले हुए द्विदलको और पत्तेको शाक-भाजीको न खावे ॥१८॥ १. 'मूलग्गपोरबीजा कंदा तह खंदबीजबीजरुहा । सम्मुच्छिमा य भणिया पत्तेयाणंतकाया य ॥'
-गो. सार जी., १८६ गाथा । २. 'बादरनिगोदप्रतिष्ठिताश्चार्षान्तरेषु श्रूयते । के ते ? स्नुर्गादकमूलकादयः ॥-पु. १, पृ. १७१ । ३. 'जत्थेक्क मरइ जीवो तत्थ दु मरणं हवे अणंताणं ।
वक्कमई जत्थ एक्क वक्कमणं तत्थ ताणं ॥'-गो. जी., गा. १९३ ।
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