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________________ २१६ धर्मामृत ( सागार) प्रमादविषयः-दूषिविषभाङ्गिका धत्तूरकादिवस्तु । अर्थ:-इन्द्रियोपभोग्यं धनं च । एतेन धनार्थ क्रूरव्यापाराणामपि त्याज्यत्वमुक्तं स्यात् । अन्यथापि-त्रसघाताद्यविषयोऽप्यर्थो योऽनिष्टो यदा स्वस्यानभिमतः ३ प्रकृतिसात्मको वा न भवति सोऽपि तदा त्याज्यः । उक्तं च 'अविरुद्धा अपि भोगा निजशक्तिमपेक्ष्य धीमता त्याज्याः। अत्याज्येष्वपि सीमा कार्यैकदिवा-निशोपभोग्यतया ॥ [ पुरुषार्थ. १६४ ] अनुपसेव्यः इष्टोऽपि शिष्टानां शीलनायोग्यश्चित्रवस्त्रविकृतवेषाभरणादिरुद्गारलाला-मूत्रपुरीषश्लेष्मादिश्च । मांसको सदा छोड़नेके लिए कहा है। और उन्हींके अनुसार चारित्रसारमें कथन है । श्वेताम्बराचार्य हेमचन्द्रने भी मद्य, मांस, मधु, मक्खन, रात्रिभोजन आदिका त्याग इसी व्रतमें कराया है। किन्तु अमृतचन्द्रजीने अपने पुरुषार्थ सिद्धयुपायमें भोगोपभोग परिमाणव्रतीसे इस तरहका कोई त्याग नहीं कराया। और यही उचित है; क्योंकि जब प्रारम्भ में ही अष्टमूल गुणोंके कथनमें मद्य-मांस आदिका त्याग कराया जा चुका तब भोगोपभोग परिमाणब्रतमें उनके त्यागकी चर्चा करना भी उचित नहीं है । इसीसे पं.आशाधरजीने स्वामी समन्तभद्रके रत्नकरण्ड श्रावकाचारका अनुसरण करते हुए भी मद्य-मांसके त्यागकी बात न कहकर मद्य-मांस-मदिराको तरह ही त्रसघात आदिवाले अन्य पदार्थों के त्यागकी बात कही है। किन्तु रत्नकरण्डमें तो अष्टमूलगुणोंके कथनमें मद्य, मांस, मधुका त्याग आ चुका है। सम्भवतः इसीसे स्वामीजीने जिन भगवान्के चरणोंकी शरणमें आये हुओंसे मद्य-मांस छोड़नेके लिए कहा है। किन्तु फिर भी यह शंका रहती है कि यहाँ यह कहनेकी आवश्यकता ही क्या थी। ऐसा प्रतीत होता है कि अष्टमूल गुणोंकी परम्परा बारह व्रतोंकी तरह प्राचीन नहीं है इसीसे उत्तर कालमें अष्टमूल गुण परिवर्तित हो गये किन्तु बारह व्रतोंमें उस तरहका परिवर्तन नहीं हआ। यद्यपि मद्य-मांस अभक्ष्य माने जाते रहे हैं किन्तु प्रारम्भसे ही उनके त्यागपर जोर उत्तरकालमें ही दिया गया है। यही कारण है कि सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिके लिए उनके त्यागकी कोई चर्चा कहीं नहीं मिलती। अस्तु, पं. आशाधरजीने कहा है कि जिस प्रकार त्रसघातका आश्रय होनेसे मांस त्यागा जाता है, बहुघातका आश्रय होनेसे मधुका त्याग किया जाता है और प्रमादका आश्रय होनेसे मद्य त्यागा जाता है वैसे ही जिसमें भी त्रसघात आदि हों उन्हें छोड़ देना चाहिए। जैसे जिनकी नालके मध्य में छिद्र होते हैं, जैसे कमलकी नाल है जिनमें बाहरसे आनेवाले जीव और सम्मूर्छन जीव रहते हैं, तथा अन्य भी बहुत जीवोंके स्थान केतकीके फूल, नीमके फूल, सहजनके फूल, अरणिके फूल, महुआ आदि फल नहीं खाना चाहिए । बहुघातवाले गुरुच, मूली, लहसुन, अदरक आदि, नशा करनेवाले भाँग, धतूरा आदि सेवन नहीं करना चाहिए। इससे धनोपार्जनके लिए क्रूर कर्मवाले व्यापारोंको भी त्याज्य समझना चाहिए। तथा धमके अभिलाषीको जिसमें त्रसघात आदि तो नहीं होते किन्तु अपनेको इष्ट नहीं है या अपनी प्रकृतिके अनुकूल नहीं है उसे भी सदाके लिए छोड़ देना चाहिए । तथा जो इष्ट होनेपर भी शिष्ट पुरुषोंके सेवनके अयोग्य है जैसे चित्र-विचित्र वस्त्र, विकृत वेश, आभूषण आदि लार, मूत्र, विष्टा, कफ आदि । उनका भी त्याग करना चाहिये । इनका त्याग करने में हेतु यह है कि जिस वस्तुका त्याग नहीं है उसका सेवन न करनेपर भी उसके त्यागसे होनेवाला फल नहीं प्राप्त होता और इसका कारण यह है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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