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चतुर्दश अध्याय ( पंचम अध्याय )
२१३
काव्यापारप्रयुक्तमित्यर्थः । एषः पूर्वश्च द्वावपि प्रमादचर्याविरतेरतीचारी । मोखयं - मुखमस्यास्तीति मुखरोऽनालोचितभाषी वाचालस्तस्य भावो धाष्टयं प्रायम सत्यासंबद्धबहुप्रलापित्वम् । अयं च पापोपदेशविरतेरतिचारो मौखर्ये सति पापोपदेशसंभवादिति तृतीयः । असमीक्ष्याधिकरणं - प्रयोजनमनालोच्य कार्यस्याधिक्येन करणम् । यथा बहुमपि कटं पातयत यावता मे प्रयोजनं तावन्तमहं क्रेष्यामि । शेषमन्ये बहवो - थिनः सन्ति तेऽपि क्रेष्यन्त्यहं वा विक्रापयिष्यामीत्येवमनालोच्य बह्वारम्भतृणाजीविभिः कारयति । एवं काष्ठच्छेदेष्टकापाकादिष्वपि वाच्यम् । तथा हिंसोपकरणं हिंसोपकरणान्तरेण संयुक्तं धारयति । यथा संयुक्तमुलूखलेन मुसलं, हलेन फालं, शकटेन युगं, धनुषा शरानित्यादि । तथा सति हि यः कश्चित्संयुक्तमुलूखलमुसलादिकमाददीत, वियुक्ते तु तस्मिन् सुखेन परः प्रतिषेधुं शक्यते । एतच्च हिंसोपकारिदानविरतेरतिचारः । सेव्यार्थाधिकतां - सेव्यस्य भोगोपभोगलक्षणस्य जनको यावानर्थस्ततोऽधिकस्य तस्य करणं भोगोपभोगानर्थक्यमित्यर्थः । अत्रायं सम्प्रदायः । यदि बहूनि स्नानसाधनानि तैलखल्यामलकादीनि गृह्णाति तदा लौल्येन बहवः स्नानार्थं तडागादौ गच्छन्ति ततश्च पूर्तरकाप्कायकादिवधोऽधिकः स्यान्न चैवं युज्यते । ततो गृह एव स्नातव्यम् । तदसंभवे तु तैलादिभिर्गृह एव शिरो घर्षयित्वा तानि सर्वाणि साधयित्वा तडागादितटे निविष्टो १२ गालितजलाञ्जलिभिः स्नायात् । तथा येषु पुष्पादिषु संसक्तिः संभवति तानि परिहरेदिति सर्वत्र वक्तव्यमिति । एषोऽपि प्रमादचर्याविरतेरतिचारः ॥ १२॥
विशेषार्थ - अनर्थदण्डविरतको उस व्रतके अतिचारोंको छोड़ना चाहिए । उनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है - कन्दर्प कामविकारको कहते हैं। जो वचन कामविकारको उत्पन्न करनेवाले होते हैं या जिनमें उसीकी प्रधानता होती है उन वचनोंके प्रयोगको भी कन्दर्प कहते हैं । अतः कन्दर्पका अर्थ है - रागकी तीव्रतासे हँसीसे मिश्रित असभ्य वचनोंका प्रयोग । भौं, आँख, ओष्ठ, नाक, हाथ, पैर और मुखके विकारोंके द्वारा कुचेष्टा के भावको कौत्कुच्य कहते हैं । अर्थात् परिहास और भाण्डपनेको लिये हुए शारीरिक कुचेष्टा कौत्कुच्य है । कन्दर्प और कौत्कुच्य ये दोनों प्रमादचर्याविरतिरूप अनर्थदण्डव्रत के अतिचार हैं। बिना विचारे अण्ट-सट बोलनेवालेको मुखर कहते हैं और मुखरके भावको मौखर्य कहते हैं । अर्थात् धृष्टताको लिए हुए असत्य और असम्बद्ध बकवाद करना मौखर्य है । यह पापोपदेशविरति नामक अनर्थदण्डव्रतका अतिचार है क्योंकि मौखर्य होनेपर पापोपदेशका होना सम्भव होता है यह तीसरा अतिचार है । आवश्यकताका विचार किये बिना अधिक कार्य करना असमीक्ष्याधिकरण नामक चतुर्थ अतिचार है। जैसे तृणोंकी चटाई बनानेवालोंसे कहना, बहुत-सी चटाइयाँ लाना । जितनी मुझे आवश्यकता होगी मैं खरीद लूँगा । बाकी और भी बहुत-से खरीदने वाले हैं वे खरीद लेंगे । नहीं तो मैं बिकवा दूंगा। इस प्रकार विना विचारे बहुत आरम्भ कराना असमीक्ष्याधिकरण है। इसी प्रकार लकड़ी काटनेवालोंसे बहुत सी लकड़ी कटवा लेना, ईंट पकानेवालोंसे बहुत-सी ईंटे पकवा लेना भी असमीक्ष्याधिकरण है । तथा अपने उपकरण हिंसा के अन्य उपकरणोंके साथ रखना, जैसे ओखलीके पास मूसल रखना, हलके साथ फाली रखना, गाड़ीके साथ जुआ रखना, धनुषके साथ बाण रखना आदि । ऐसा होने से कोई भी ओखली और मूसल ले जाता है। यदि दोनों अलगअलग रखे हों तो लेनेवालेको सरलतासे टाला जा सकता है कि हमारे पास मूसल नहीं है या ओखली नहीं है । यह हिंसोपकरणदान विरतिका अतिचार है । सेवनीय अर्थात् भोगोपभोगका जनक जितना अर्थ है उससे अधिक करना सेव्यार्थाधिकता नामक अतिचार है
१. पूरकायाप्का. भ. कु. च. ।
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