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________________ २१४ धर्मामृत ( सागार) अथ भोगोपभोगपरिमाणाख्यतृतीयगुणवतस्वीकरणविधिमाह भोगोऽयमियान सेव्यः समयमियन्तं न वोपभोगोऽपि । इति परिमायानिच्छंस्तावधिको तत्प्रमावतं श्रयत॥१३॥ भोग इत्यादि । अयं भोग्यतया प्रसिद्धो भोगो माल्यताम्बूलादिः समयमियन्तं यावज्जीवं दिवसमासादिपरिच्छिन्नं वा कालं न सेव्यो नोपयोक्तव्यो मया । इयान्वा इदं परिमाणः सेव्य इति संबन्धः कार्यः । ६ एवमुपभोगेऽपि ॥१३॥ अथ भोगोपभोगयोर्लक्षणं तत्त्यागस्य च यावज्जीविकस्य नियतकालस्य च संज्ञाविशेषमन्वाचष्टे भोगः सेव्यः सकृदुपभोगस्तु पुनः पुनः स्रगम्बरवत् । तत्परिहारः परिमितकालो नियमो यमश्च कालान्तः ॥१४॥ उसका अर्थ होता है भोगोपभोगके पदार्थोंका अनावश्यक संग्रह करना। इससे आशय यह है कि यदि स्नानके साधन तेल, साबुन वगैरह बहुत हों तो बहुत-से आदमी तालाब आदिमें स्नानके लिए जाते हैं उससे जलकायके जीवोंका अधिक वध होता है। ऐसा करना उचित नहीं है अतः घरपर हो स्नान करना चाहिए। यह सम्भव न हो तो घरपर ही तेल आदि सिरमें लगाकर तालाबके किनारे बैठकर छने जलसे अंजुली भरकर स्नान करे। तथा जिन पुष्प आदिमें आसक्ति हो उन्हें त्याग दे। अन्यथा यह छठा भी प्रमाद विरतिका अतिचार है ॥१२॥ अब भोगोपभोग परिमाण नामक तीसरे गुणवतको स्वीकार करनेकी विधि कहते हैं यह इतना भोग और यह इतना उपभोग मेरे द्वारा इतने समय तक सेवन करने योग्य है। अथवा यह इतना भोग और यह इतना उपभोग मेरे द्वारा इतने समय तक सेवन करने योग्य नहीं है । इस प्रकार परिमाण करके सेवन करनेके योग्य और सेवन करने के अयोग्य रूपसे प्रतिज्ञा किये गये भोग और उपभोगसे अधिककी इच्छा नहीं करनेवाला गुणव्रती श्रावक भोगोपभोग परिमाण व्रतको स्वीकार करे ।।१३।। विशेषार्थ-भोगोपभोग परिमाणवतमें भोग और उपभोगका परिमाण दो रूपसे किया जाता है-एक विधि रूपसे और दूसरा निषेध रूपसे । मैं इस इतने भोग और उपभोगका सेवन इतने समय तक करूँगा, यह विधिरूप है। और मैं इस इतने भोग और उपभोगका सेवन इतने समय तक नहीं करूँगा। यह निषेध रूप है । इस तरह दोनों प्रकारसे त्यागका कथन अन्य श्रावकाचारोंमें नहीं किया है । यद्यपि एकसे दूसरेका ग्रहण स्वतः हो जाता है ॥१३॥ आगे भोग और उपभोगका लक्षण तथा यावज्जीवन और नियत समयके लिए किये गये त्यागके नाम बतलाते हैं जो एक बार ही सेवन किया जाता है, एक बार भोगकर पुनः नहीं भोगा जाता, उसे भोग कहते हैं । जैसे फूल-माला । और जो बार-बार सेवन किया जाता है अर्थात् एक बार सेवन करके पुनः सेवन किया जाता है वह उपभोग है । जैसे वस्त्र । एक-दो आदि दिनमास आदिके परिमित कालके लिए भोग-उपभोगके त्यागको नियम कहते हैं। और मरण पर्यन्त किये गये त्यागको यम कहते हैं ॥१४।। १. -तं मयोप- । न्तं सदोप- मु.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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