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________________ ६ १२ धर्मामृत ( सागार ) तद्वच्चन सरेद्वयर्थं न परं सारयेन्न हि । जीवघ्नजीवान् स्वीकुर्यान्मार्जारशुनकादिकान् ॥११॥ न सरेत् — करचरणादिव्यापारं न कुर्यात् । न हीत्यादिनियमेन फलवतोऽपि न परिगृह्णीयादित्यर्थः । उक्तं च २१२ 'मण्डल- विडाल - कुक्कुट - मयूर - शुक-सारिकादयो जीवाः । हितकाम्यैनं ग्राह्याः सर्वे पापोपकारपराः ॥' [ अमि श्रा. ६।८२ ] ॥११॥ अथ अनर्थदण्डविरति अतिचारत्यागमाह - मुकन्दर्प-कौत्कुच्य- मौखर्याणि तदत्ययान् । असमीक्ष्याधिकरणं सेव्यार्थाधिकतामपि ॥ १२ ॥ कन्दर्पः—कामस्तत्प्रधानो वा वाक्प्रयोगोऽपि कन्दर्पः, रागोद्रेकात् प्रहास मिश्रोऽशिष्टवाक्प्रयोग इत्यर्थः । कोत्कुच्यं— कुदिति कुत्सायां निपातानामानन्त्यात् । कुत्सितं कुचति भ्रू नयनोष्ठनासाकरचरणमुखविकारैः संकुचतीति कुत्कुचः संकोचादिक्रियाभाक् तद्भावः कौत्कुच्यम् । प्रहासो - भण्डिमावचनं च भण्डिमोपेत भी कही है । बिना प्रयोजन पृथ्वी खोदने आदिकी तरह बिना प्रयोजन हाथ-पैर आदिको हलन चलन न स्वयं करे और न दूसरेसे करावे । तथा प्राणियों का घात करनेवाले कुत्ता बिल्ली आदि जन्तुओंको नहीं पाले ||११|| विशेषार्थ - श्वेताम्बराचार्य हेमचन्द्रने अपने योगशास्त्र में ( ३।७३-७४) अनर्थदण्डके चार ही भेद किये हैं | दुश्रुति भेद नहीं किया । तथा जैसे आशाधरजीने परस्परके व्यवहार के अतिरिक्त आग वगैरह देनेका निषेध किया है वैसा उन्होंने भी किया है साथ ही उन्होंने पापोपदेशके सम्बन्धमें भी ऐसा ही कहा है। लिखा है - यह पापरूप उपदेश श्रावकको नहीं करना चाहिए । जो सर्वत्र पापोपदेशका नियम करनेमें असमर्थ हैं उनके लिए यह अपवाद कहते हैं - बन्धु, पुत्र आदिको पापका उपदेश न करना अशक्य है क्योंकि वर्षाकाल आनेपर खेत जोतने बीज बोने आदिके लिए कहना ही होगा । अतः परस्परके व्यवहारसे बाहर के लोगों में पापोपदेश नहीं करना चाहिए । यह उनका मत है । अमृतचन्द्राचार्यने जुआ खेलनेको भी अनर्थदण्ड माना है । लिखा है - 'जुआ सब अनर्थों में ( सब व्यसनों में ) प्रथम है, सन्तोषका नाशक है, मायाचारका घर है, चोरी और असत्यका स्थान है । इसे दूर से ही छोड़ना चाहिए ।' अमितगतिने कुत्ता, बिल्ली, मुर्गा, मोर, तोता, मैना आदिको पालनेका निषेध किया है ।।१०-११॥ अनर्थदण्डव्रतके अतिचारोंको छोड़ने के लिए कहते हैं अनर्थदण्डके त्यागीको कन्दर्प, कौत्कुच्य, मौखर्य, असमीक्ष्याधिकरण और सेवनीय पदार्थों की अधिकता इन अतिचारोंको छोड़ना चाहिए ||१२|| १. येन्महीम् मु । २. ' कन्दर्प कौत्कुच्य मौखर्यासमीक्ष्याधिकरण भोगोपभोगानर्थक्यानि ॥ ' - त. सू. ७३२ । ३. वृषभान् दमय क्षेत्रं कृष षण्ढय वाजिनः । दाक्षिण्याविषये पापोपदेशोऽयं न कल्पते ॥ - योगशास्त्र ३।७६ ॥ ४. 'सर्वानर्थप्रथमं मथनं शौचस्य सद्म मायायाः । दूरात्परिहरणीयं चौर्यासत्यास्पदं द्यूतम् ॥ - पुरुषार्थ. १४६ श्लो. । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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