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________________ चतुर्दश अध्याय ( पंचम अध्याय ) अथ दिग्विरतिव्रतं लक्षयति यत्प्रसिद्धैरभिज्ञानंः कृत्वा दिक्षु दशस्वपि । नात्येत्यणुव्रती सीमां तत्स्याद्दिग्विरतिर्व्रतम् ॥२॥ प्रसिद्धैः - दिग्विरतिमर्यादाया दातुर्गृहीतुश्च प्रतीतैः । अभिज्ञानैः - समुद्रनद्यादिभिचिह्नः । कृत्वाप्रतिपद्य । अपि - एक द्वित्र्यादिष्वपि यावज्जीवमल्पकालं वेत्यपीत्येवमर्थः । नात्येति–नातिक्रम्य गच्छति अणुव्रती न तु महाव्रती तस्य सर्वारम्भपरिग्रहविरतत्वेन समितिपरत्वेन च नृलोके यथाकामं संचाराद्दिग्वि रत्यनुपपत्तेः । उक्तं च 'सदा सामायिकस्थानां यतीनां तु यतात्मनाम् । नदी शिक्व च न स्यातां विरत्यं विरती इमे ॥' ( ? ) [ दिग्विरतिः - नियमितसीम्नोर्बहियातायात निवृत्तिः । व्रतं - गुणव्रतमित्यर्थः । नामैकदेशे हि वृत्ताः शब्दा नाम्न्यपि वर्तन्ते भीमादिवत् ||२|| २०५ दिव्रतका स्वरूप कहते हैं अणुव्रती जो दसों दिशाओं में प्रसिद्ध समुद्र, नदी आदि चिह्नोंसे मर्यादा करके उसको उल्लंघन नहीं करता उसे दिग्विरति व्रत कहते हैं ||२|| १. 'दिग्वलयं परिगणितं कृत्वाऽतोऽहं बहिर्न यास्यामि । इति संकल्पो दिग्व्रतमा मृत्यणुपापविनिवृत्त्यै ॥ ' - रत्न. श्रा. ६८ इलो. 1 २. 'पूर्वस्यां दिशि गच्छामि यावद्गंगाम्बुकेवलम् । तद्बहिर्वपुषाऽनेन न गच्छामि सचेतनः ॥ - लाटी. ६।११३ ॥ Jain Education International ३. अत्राह किं हिंसादीनामन्यतमस्माद्यः प्रतिनिवृत्तः स खल्वगारी व्रती ? नैवम् । किं तर्हि ? पञ्चतय्या अपि विरतवैकल्येन विवक्षितः इत्युच्यते - 'अणुव्रतोऽगारी' - सर्वार्थसि ७।२० । विशेषार्थ - दिग्विरति शब्दका अर्थ है दिशाओं में नियमित सीमासे बाहर आने-जानेसे निवृत्ति । यही इस व्रतका लक्षण है । यह नियम अणुव्रतीके लिए है, महाव्रतीके लिए नहीं है क्योंकि महाव्रती तो समस्त आरम्भ और परिग्रहसे विरत होता है और समितिका पालन करनेमें तत्पर रहता है । अतः मनुष्य लोकमें इच्छानुसार विचरण कर सकता है । ऊपर श्लोक में जो 'अपि' शब्द है वह ग्रन्थकार के अनुसार यह बतलाता है कि एक-दो दिशाओंकी भी मर्यादा की जा सकती है तथा वह मर्यादा जीवनपर्यन्तके लिए भी होती है। और कुछ समय के लिए भी होती है। पं. आशाधर जी का यह कथन स्वामी समन्तभद्रके प्रतिकूल है । उन्होंने कहा है- 'दिशाओं की मर्यादा करके मैं इसके बाहर मृत्युपर्यन्त नहीं जाऊँगा ऐसा नियम दिखत है । लोटी संहिता में भी कहा है कि जबतक मैं सचेतन हूँ, तबतक इस शरीर से मर्यादाके बाहर नहीं जाऊँगा । इसी तरह दिव्रत में दसों दिशाओं की मर्यादा आवश्यक है एक-दो दिशाओंकी मर्यादाको दिनत नहीं कहा है । इसी तरह पिछले अध्याय के अन्तिम श्लोक में 'पञ्चाप्येवमणुव्रतानि' से पाँचों अणुव्रतोंके पालनके लिए सात शील कहे हैं । यहाँ भी अपि शब्द है । टीका में कहा है कि 'अपि' शब्द से एक या दो या तीन या चार अणुव्रत लेना चाहिए । अर्थात् एक अणुव्रत के पालनके लिए भी सात शील पाल सकता है किन्तु ऐसेको तो अणुव्रती ही नहीं कहा। सर्वार्थसिद्धि में यह शंका की गयी है कि जो हिंसा आदि पाँच पापोंमें से एकका त्याग करे क्या वह अगारी व्रती है ? उत्तर दिया गया I For Private & Personal Use Only ३ ६ ९ www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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