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चतुर्दश अध्याय ( पञ्चम अध्याय )
अथ शीलसप्तकं व्याकर्तुकामस्तद्विकल्पभूतानि गुणव्रतानि तावल्लक्षयति
यद्गुणायोपकारायाणुव्रतानां व्रतानि तत् ।
गुणवतानि त्रीण्याहुदिग्विरत्यादिकान्यपि ॥१॥ दिग्विरत्यादिकानि । आदिशब्देनानर्थदण्डविरति गोपभोगपरिमाणं च संगृह्यते । यत्स्वामी
'दिग्वतमनर्थदण्डवतं च भोगोपभोगपरिमाणम् ।
अनुबृहणाद्गुणानामाख्यान्ति गुणनतान्यार्याः ॥ [ रत्न. श्रा. ६७ ] आ....
'अनर्थदण्डेभ्यो विरतिः स्याद्गुणवतम् ।
भोगोपभोगसंख्यानमप्याहुस्तद्गुणवतम् ॥ [ ] अपिशब्दः सितपटोक्तखरकर्मव्रतज्ञापनार्थम् । mmm
आगे सात शीलोंका वर्णन करनेके अभिप्रायसे पहले उनके भेद गुणव्रतोंका लक्षण कहते हैं
यतः ये व्रत अणुव्रतोंके गुण अर्थात् उपकारके लिए होते हैं अतः दिग्विरति आदि तीनों ही व्रतोंको गुणव्रत कहते हैं ॥१॥
विशेषार्थ-दिग्विरति, अनर्थदण्डविरति और भोगोपभोग परिमाण ये तीन गुणव्रत स्वामी समन्तभद्र के मतानुसार ग्रन्थकारने कहे हैं। सात शीलव्रतके दो मुख्य भेद हैं-गुणव्रत
और शिक्षाव्रत । गुणव्रत तीन और शिक्षावत चार होते हैं। इस तरह शीलोंकी संख्या में तथा गुणव्रत और शिक्षाबतके भेदोंकी संख्यामें कोई मतभेद नहीं है। किन्तु गणव्रत और शिक्षाव्रतके अवान्तर भेदोंमें अन्तर है। जैसे आचार्य कुन्दकुन्दने दिशाविदिशापरिमाण, अनर्थदण्डत्याग और भोगोपभोगपरिमाणको गुणव्रत कहा है। ऐसा ही कथन पद्मपुराणमें है। और भावसंग्रह में भी ऐसा ही है । तत्त्वार्थ सूत्र में दिग्विरति और देशविरतिको अलगअलग गिनाया है। उसके टीकाकार पूज्यपाद दिग्विरति, देशविरति और अनर्थदण्ड विरति को गुणव्रत कहते हैं। महापुराणमें भी इन्हें ही गुणव्रत कहा है किन्तु यह भी लिखा है कि कोई-कोई भोगोपभोग परिमाणको गुणव्रत कहते हैं। पुरुषार्थसिद्धथुपाय, सोमदेव उपासकाध्ययन, चारित्रसार, अमितगति उपासकाचार, पद्मनन्दि पंचविंशतिका और लाटीसंहिता तत्त्वार्थसूत्र के अनुगामी है। स्वामीकार्तिकयानुप्रेक्षा और सागार धमोमृत रत्नकरण्ड श्रावकाचारके अनुगामी हैं। श्वेताम्बर परम्परामें भी रत्नकरण्डवाला मत ही मान्य है। रत्नकरण्डमें कहा है कि ये तीनों व्रत गुणोंको बढ़ाते हैं इसलिए उन्हें गणव्रत कहते हैं । श्लोकमें आया अपि' शब्द श्वेताम्बरों द्वारा कहे खरकर्मव्रतके ज्ञापनके लिए है ।।१।।
१. चारित्र प्रा. गा. २४ । २. पर्व ४।१९। ३. गा. ३५४ । ४. ७।२१। ५.१०।६५-६६ । ६. गा. ३४१ आदि ।
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