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________________ प्रस्तावना २१ रात्रिमें पूजन आदि - अहिंसाणुव्रतके अन्तर्गत रात्रिभोजन - निषेध की भी चर्चा की गयी है और कहा है कि जिस रात्रि के समयमें अन्य धर्मावलम्बी भी कोई सत्कर्म करना पसन्द नहीं करते उसमें कौन भोजन करेगा । उन सत्कर्मोंमें सत्पात्रदान, स्नान, देवपूजा, आहुति और श्राद्ध गिनाये हैं तथा उद्धृत श्लोकोंमें एक श्लोक इस प्रकार है "नैवाहुतिर्न च स्नानं न श्राद्धं देवतार्चनम् । दानं चाविहितं रात्रौ भोजनं च विशेषतः ॥" किन्तु आजकल कहीं-कहीं, जहाँ भट्टारकपन्थ प्रवर्तित है, रात्रिमें अभिषेक पूजन होता है । और भट्टारकपन्थी मुनि भी उसमें योगदान करते हैं । ऐसा करना आगमविरुद्ध है । ब्रह्माणुव्रत – रत्नकरण्ड श्रावकाचार में ब्रह्माणुव्रतका स्वरूप इस प्रकार कहा है " न तु परदारान् गच्छति न परान् गमयति च पापभीतेर्यत् । सा परदारनिवृत्तिः स्वदार संतोषनामापि ॥" 'जो पापके भयसे न तो परस्त्रियोंसे रमण करता है और न दूसरोंसे रमण कराता है वह परदारनिवृत्ति है उसीका नाम स्वदारसन्तोष भी है । इस व्रत अतिचारोंमें भी इत्वरिकागमन नामक एक ही अतिचार गिनाया है । किन्तु तत्त्वार्थ सूत्र में इत्वरिकाके दो भेद करके दो अतिचार अलग-अलग गिनाये हैं - एक इत्वरिका परिगृहीतागमन, दूसरा इत्वरिका अपरिगृहीतागमन । इत्वरिकाका अर्थ है परपुरुषगामिनी व्यभिचारिणी स्त्री । उसके दो प्रकार हैं - जिसका स्वामी एक पुरुष है वह परिगृहीता है और जिसका कोई स्वामी नहीं है ऐसी गणिका वगैरह अपरिगृहीता है । इसीसे पूज्यपाद स्वामीने ब्रह्माणुव्रत स्वरूपमें परिगृहीत और अपरिगृहीत परस्त्रीके साथ रतिके त्यागको ब्रह्माणुव्रत कहा है । आशाधरजीने इस व्रतको स्वदारसन्तोष नाम दिया है। 'जो पापके भयसे मन वचन - काय और कृतकारित अनुमोदनासे अन्य स्त्री और प्रकट स्त्रीको न स्वयं भजता है और न दूसरोंसे ऐसा कराता है वह स्वदारसन्तोषी है ।' इसकी व्याख्यामें उन्होंने अन्यस्त्रीके दो भेद किये हैं- परिगृहीता और अपरिगृहीता । जिसका स्वामी है वह परिगृहीता है । और जो अनाथ कुलस्त्री है या जिसका पति विदेश में है या परित्यक्ता है वह अपरिगृहीता है । तथा प्रकटस्त्री वेश्या है । इस तरह उन्होंने वेश्याको अन्यस्त्री - या परिगृहीत और अपरिगृहीत इत्वरिका से अलग कर दिया है । और लिखा है यह ब्रह्माणुव्रत निरतिचार अष्टमूलगुणोंके पालक विशुद्ध सम्यग्दृष्टि श्रावकके कहा है । किन्तु जो स्वस्त्रीके समान साधारण स्त्रियों का भी त्याग करनेमें असमर्थ है और केवल परस्त्रियोंका ही त्याग करता है वह भी ब्रह्माणुव्रती कहा जाता | क्योंकि ब्रह्माणुव्रतके दो भेद हैं- स्वदारसन्तोष और परदारनिवृत्ति । यह बात ऊपर अन्यस्त्री और प्रकटस्त्री इन दोनों के सेवनका निषेध करनेसे प्रकट होती है ।' अपने इस मत के समर्थन में आशाधरजीने श्वेताम्बराचार्य हेमचन्द्रके योगशास्त्रका प्रमाण दिया है । उसके पश्चात् सोमदेव सूरीके उपासकाध्ययनका प्रसिद्ध श्लोक उद्धृत किया है Jain Education International "वधूवित्तस्त्रियो मुक्त्वा सर्वत्रान्यत्र तज्जने । माता स्वसा तनूजेति मतिर्ब्रह्मगृहाश्रमे ॥” ' अर्थात् वधू (पत्नी) और वित्तस्त्री (वेश्या) को छोड़कर अन्य सब स्त्रियों में माता, बहन, बेटीकी बुद्धि होना गृहस्थों का ब्रह्मचर्य है ।' For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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