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धर्मामृत (सागार)
हेमचन्द्र तो सोमदेवके पश्चात् हुए है । अतः सम्भवतया सामयिक परिस्थितिसे प्रेरित होकर सोमदेवने ही ब्रह्माणुव्रतसे वेश्याको अलग कर दिया है। और ब्रह्माणुव्रतके अभ्यासियों के लिए ऐसी छूट देना अनुचित भी नहीं है। उसके बिना त्यागमार्ग चल नहीं सकता। फिर ब्रह्मचर्य तो सब व्रतोंमें कठिन है।
जनोंको कामसे विमुख करने के लिए केवल परस्त्रीका त्याग कराना भी उचित ही है। और इसी दृष्टिसे इसे देखना भी चाहिए ।
व्रतोंके अतिचार-व्रतका ध्यान रखते हुए भी जो उसके एक देशका भंग हो जाता है उसे अतिचार कहते हैं। अतिचारोंकी परम्पराका उद्गम तत्त्वार्थसूत्र ही प्रतीत होता है। प्रायः सभी श्रावकाचारोंमें उसीके अनुसार अतिचार गिनाये हैं। रत्नकरण्ड श्रावकाचारमें ही क्वचित् अन्तर प्रतीत होता है । दूसरी व्रत प्रतिमाके धारी श्रावकके लिए तो अतिचार त्याज्य हैं। अतः ये अतिचार तो प्रायः अभ्यासीके लिए ही सम्भव हैं। वही इस प्रकारकी मोटी गलतियां कर सकता है। इनके पीछे आचार्योंकी उदात्त भावना तथा मानव मनकी कमजोरियोंके प्रति सहिष्णुताका भाव भी रहा है। अतिचार लगाते हुए भी यदि व्रती अपने व्रतकी मूलभावनाके प्रति जागरूक रहे तो वह अतिचारोंको भी छोड़ने में सक्षम हो सकता है । अतिचारोंके भयसे यदि व्रत ही ग्रहण न करे तो वह कभी व्रती नहीं हो सकता। उदाहरणके लिए जिस व्यक्तिको चोरीकी आदत है यदि वह चोरी न करनेका व्रत लेता है किन्तु अपनी आदतवश चोरी न करके भी किसीको चोरीका उपाय बताता है तो उसका यह अपराध क्षम्य ही कहा जायेगा। यही बात सत्य बोलनेका व्रत लेकर झूठी गवाही देनेके सम्बन्ध में भी कही जा सकती है। किन्तु परिगृहीत और अपरिगृहीत परस्त्रीका त्याग करके भी उनका सेवन अतिचार माना गया है यह खटक सकता है। परन्तु जिसने नया व्रत लिया है, पुरानी आदतवश यदि कदाचित् उससे भूल हो जाये तो ऐसी स्थितिमें ही उसे अतिचारको संज्ञा दी जा सकती है। अतिचार छूट नहीं है, दोष है । और बार-बार दोष लगानेसे व्रत भंग हो सकता है। इसलिए उनकी ओरसे सावधान करने के लिए ही अतिचार कहे गये हैं।
आचार्य अमितगतिने अपने सामायिक पाठमें अतिचारसे पूर्व अतिक्रम और व्यतिक्रम कहे हैं। यथा
"क्षतिं मनःशुद्धिविधेरतिक्रमं व्यतिक्रमं शीलवृतेविलवनम् । प्रभोऽतिचारो विषयेषु वर्तनं वदन्त्यनाचारमिहातिसक्तताम् ।।
"मनकी शुद्धिकी विधिमें कमी आना अतिक्रम है। शीलकी बाड़को लांघना व्यतिक्रम है, विषयोंमें प्रवृत्ति अतिचार है और उनमें अतिआसक्ति अनाचार है।"
इसमें अतिचारका लक्षण विषयोंमें प्रवृत्ति कहा है। किन्तु वह प्रवृत्ति व्रतका ध्यान रखते हुए भो कदाचित् ही होना चाहिए । इसके अनुसार जो अतिचार बतलाये गये हैं वे प्रायः सब सुघटित हो सकते हैं। असलमें तो प्रथम अवस्था अतिक्रम है। मानसिक शुद्धि में क्षति आये बिना त्यागे हुए विषयमें प्रवृत्ति नहीं हो सकती। अतः प्रारम्भसे ही सावधान रहनेसे अतिचारका प्रसंग नहीं आ सकता। किन्तु उसके लिए व्रतीको सतत जागरूक रहना आवश्यक है। जो लोग लौकिक प्रतिष्ठा या भावुकतावश व्रत धारण करते हैं वे प्रायः बाहरसे तो सावधान रहते हैं किन्तु अन्तरंगसे सावधान नहीं रहते । अतः उनके व्रत प्रायः सातिचार ही रहते हैं । संसार शरीर और भोगोंसे अन्तरंगसे उदासीन वही होता है जो सम्यग्दर्शनसे शुद्ध होता है। और सम्यग्दर्शन केवल प्रयत्नसाध्य नहीं है, ब्रतोंकी तरह उसे ऊपरसे नहीं ओढ़ा जा सकता। और उसके बिना सब व्रताचरण निष्फल हैं। अतः व्रतीको सम्यग्दर्शनकी शुद्धिके लिए सदा तत्त्वचिन्तनमें रत रहना चाहिए क्योंकि तत्त्वदृष्टिके बिना सम्यग्दृष्टि प्राप्त नहीं होती।
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