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धर्मामृत ( सागार)
रत्नकरण्डमें अष्टमूलगुणोंका तो कथन है किन्तु उन्हें किसी प्रतिमासे सम्बद्ध नहीं किया है। आशाधरजीने पाक्षिकको अष्टमूलगुणका धारी बतलाया है। अतः प्रथम प्रतिमाका धारी भी अष्टमूलगुणधारी होता है । अन्तर इतना है कि पाक्षिक सातिचार और दर्शनिक निरतिचार पालता है। ४. चतुर्थादि अध्याय
व्रती श्रावक-श्रावकके बारह व्रतोंकी परम्परा अष्टमूलगुणोंसे भी प्राचीन है। आचार्य कुन्दकुन्दने अपने चारित्रप्राभूतमें बारह व्रतोंका ही कथन किया है। वे बारह व्रत हैं-पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत । तत्त्वार्थसूत्रके सातवें अध्यायमें भी इन्हींका विवेचन है । इन्हें ही उत्तरकालमें श्रावकके उत्तरगुण कहा है। जैसे पाक्षिक श्रावक अष्टमल गुणोंका पालन करता है उसी प्रकार पूर्वमें श्रावक इन बारह व्रतोंका पालन करता था और उनका पालन करनेसे वह श्रावक कहलाता है। उस समयमें श्रावकके पाक्षिकादि भेद प्रचलित नहीं थे । केवल ग्यारह प्रतिमारूप ही श्रावकके भेद थे। उसकी नैष्ठिक संज्ञा भी उत्तरकालोन है। बारह व्रतोंका सातिचार पालन करनेसे साधारण श्रावक होता था। और निरतिचार पालन करनेसे व्रतप्रतिमाका धारी व्रतिक श्रावक होता था। रत्नकरण्ड श्रावकाचारमें व्रतिक प्रतिमाका यही स्वरूप कहा है।
तत्त्वार्थसूत्र में व्रतीको निःशल्य कहा है। अर्थात् जो माया, मिथ्यात्व और निदान इन तीन शल्योंसे रहित होकर व्रत धारण करता है वही व्रती है, केवल व्रत धारण करनेसे कोई व्रती नहीं होता। मायाचार, मिथ्यात्व और निदानका त्याग किये बिना अन्तरंग शुद्धि सम्भव नहीं है। किन्तु व्रतोंके बाह्य रूपकी ओर जितना ध्यान दिया जाता है उसका शतांश भी ध्यान अन्तरंगकी ओर नहीं दिया जाता। और व्रत धारण करने मात्रसे ही व्रती मान लिया जाता है ।
आचार्य अमितगतिने अपने श्रावकाचारमें निदानके दो भेद किये हैं.-प्रशस्त और अप्रशस्त । तथा प्रशस्तके भी दो भेद किये हैं-एक संसारका हेतु और एक मुक्तिका हेतु । जिनधर्मकी सिद्धि के लिए यह याचना करना कि मुझे उत्तमजाति, उत्तमकुल प्राप्त हो, ऐसा निदान भी संसारका हेतु है तथा कर्मोका विनाश, संसारके दुःखसे छुटकारा, बोधि, समाधि आदिकी प्राप्तिकी आकांक्षा करना मुक्तिका हेतु निदान है। यह मुक्तिका हेतु निदान भी नीचेकी भूमिकाम ही अच्छा माना गया है। पद्मनन्दि पंचविशतिकाम। कि मोहवश मोक्षकी भी अभिलाषा मोक्षकी प्राप्तिमें बाधक है तब अन्य अभिलाषाओंका तो कहना ही क्या है । अतः मुमुक्षुको सब अभिलाषाएँ त्यागकर अध्यात्मरत होना चाहिए। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रारम्भमें अणुव्रत साधारण थे। किन्तु उत्तरकालमें उनमें कठिनता आ गयी। पूज्यपादने अपनी सर्वार्थसिद्धिमें 'अणुव्रतोऽगारी' सूत्रकी व्याख्याने पाँच अणुव्रत इस प्रकार कहे हैं-त्रसहिंसाका त्याग अहिंसाणुव्रत है । स्नेह, मोह आदिके वश होकर ऐसा झूठ न बोलना, जो किसीका घर उजाड़ दे या गांव उजाड़ दे सत्याणुव्रत है । जिसके लेने में राजभय आदि हो ऐसी दूसरोंके द्वारा त्यागी हुई वस्तुके प्रति भी बिना दिये ग्रहणका भाव न होना अचौर्याणुव्रत है। किसीके द्वारा स्वीकृत या अस्वीकृत परस्त्रीके साथ रति न करना ब्रह्मचर्याणुव्रत है। और धनधान्य, खेत आदिका इच्छावश परिमाण करना परिग्रहपरिमाण अणुव्रत है। ये पाँचों ही अणुव्रत ऐसे हैं जिन्हें साधारण गृहस्थ सरलतासे पाल सकता है।
किन्तु त्रसहिंसाके त्यागमें मन-वचन-काय और कृत, कारित, अनुमोदना रूप नौ संकल्प जोड़नेसे अहिंसाणुव्रतका पालन भी साधारण गृहस्थके लिए कठिन हो गया। उत्तरकालमें आचार्योंका ध्यान इस ओर गया प्रतीत होता है। आचार्य अमितगतिने अपने श्रावकाचारमें हिंसाके दो भेद किये हैं-आरम्भी और अनारम्भी। जिसने गृहवास त्याग दिया है वह दोनों प्रकारकी हिंसासे विरत रहता है। किन्तु गृहवासी श्रावक आरम्भी हिंसाका त्याग नहीं कर सकता।
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