SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 22
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्तावना अतः ज्ञानियोंको चारित्रधारियोंका समादर करना चाहिए और चारित्र के प्रेमियोंको ज्ञानियोंका समादर करना चाहिए। __ अन्तमें श्रावकको अपनी सहधर्मिणीमें ही सन्तान उत्पन्न करनेकी तथा उसे आचारमें दक्ष करने और कुमार्गसे बचानेकी प्रेरणा की गयी है। ज्ञानदीपिका पंजिकामें मनस्मतिसे अनेक श्लोक उदधत करके पत्रोंके भेद बतलाये हैं। आशाधरजी वैद्यक शास्त्रके भी पण्डित थे। उन्होंने अष्टांगहृदयपर टीका रची थी। अतः इस प्रकरणमें उन्होंने उससे अनेक श्लोक देकर पुत्रोत्पादनकी विधि भी विस्तारसे बतलायी है। वह सब विवाहसे पूर्व प्रत्येक वयस्क कन्या और युवकको जानना आवश्यक है। हमारे देशके युवक और युवतियाँ सिनेमाके द्वारा बहुत-सी कुशिक्षा तो प्राप्त करते हैं किन्तु उन्हें कामशास्त्र-विषयक आवश्यक ज्ञान देने में संकोचका अनुभव किया जाता है और इससे वे कुसंगतमें पड़ जाते हैं। आजके भोगप्रधान युगमें इस प्रकारकी सत् शिक्षा देना आवश्यक है जिससे विवाहसे पूर्व उन्हें स्त्री-पुरुष-विषयक आवश्यक बातोंका परिज्ञान हो जाये, और वे अतिप्रसंगसे बचकर संयमपूर्वक सन्ताननिरोधका भी मार्ग अपना सकें। संयमकी शिक्षाके अभाव में कृत्रिम उपायोंके अवलम्बनसे अयत्नाचारके साथ दुराचार भी बढ़ता है और उससे व्यक्तिके साथ समाजका भी नैतिक पतन होता है । नैतिक पतनके साथ धर्मकी संगति नहीं बैठ सकती। जो व्यक्ति नैतिक दृष्टिसे पतित है, छिपकर अनाचार करता है और उसे छिपानेके लिए धर्मपालनका ढोंग रचता है वह उस अनाचारीसे भी हीन है जो अपने दुराचारको छिपानेके लिए धर्मका ढोंग नहीं रचता । ऐसे ढोंगी धर्मात्माओं के कारण ही धर्मका पवित्र मार्ग मलिन होता है और आजके शिक्षित नवयुवक धर्मका परिहास करते हैं । अतः आज पाक्षिक-जनसाधारणके-जीवनको सुधारनेकी विशेष आवश्यकता है । और उसकी दृष्टिसे सागारधर्मामृतका यह अध्याय बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। ३. तृतीय अध्याय नैष्ठिक श्रावक (दर्शनिक)- दुसरेके पश्चात तीसरेसे सातवें अध्याय तक नैष्ठिक श्रावकका कथन है । नैष्ठिकके ही भेद ग्यारह प्रतिमाएँ है। तीसरे अध्यायमें केवल दर्शन प्रतिमाका कथन है। रत्नकरण्ड श्रावकाचारमें पहली प्रतिमावालेको सम्यग्दर्शनसे शद्ध, संसार शरीर और भोगोंसे विरक्त तथा पंचपरमेष्ठीके चरणोंको ही अपना शरण माननेवाला कहा है। उसीका विस्तार इस अध्यायमें है । 'पञ्चगुरुचरणशरणः'के स्थानमें 'परमेष्ठीपदैकधीः' पद दिया गया है। अर्थात पंच गुरुके चरणोंमें ही जिसकी अन्तर्दृष्टि है । यहाँ जो 'धी' के पहले 'एक' पद लगाया है उसकी सार्थकता बतलाते हुए आशाधरजीने अपनी पंजिका और टीकामें लिखा है-दर्शनिक श्रावक आपत्तियोंसे व्याकुल होकर भी शासन-देवता आदिको कभी भी नहीं भजता। किन्तु पाक्षिक भजता भी है, यह बतलाने के लिए 'एक' पद रखा है। ___आशाधरजी भट्टारक युगके विद्वान् थे और भट्टारक युगमें पद्मावती आदिकी भक्तिका प्रचार चालू था। उनसे पहले केवल सोमदेवने अपने उपासकाध्ययनमें शासन-देवोंका उलेख करते हुए कहा है कि जो पूजाविधानमें उन्हें जिनदेवके समान स्थान देता है उसकी अधोगति होती है। किन्तु आशाधरजीने उनका स्पष्ट रूपसे निषेध किया है । अनगारधर्मामृतकी अपनी टीकामें भी उन्होंने उन्हें कुदेव कहा है । खेद है कि आज भट्टारकपन्थी कुछ मुनियों और आचार्योंके द्वारा कुदेवपूजाका प्रचार चालू है जो स्पष्ट ही आगमविरुद्ध है। मनुष्य विपत्ति में पड़कर ही कुदेवोंकी ओर आकृष्ट होता है। किन्तु विपत्तिका कारण है मनुष्यका पूर्वबद्ध पापकर्म । कुदेवपूजासे तो वह दृढ़ ही होता है। एकमात्र जिनभक्ति ही उसे काटने में समर्थ है। अतः सच्चा जिनभक्त एकमात्र जिनदेवके सिवाय अन्य किसी भी कुदेवकी सेवा नहीं करता। रत्नकरण्डश्रावकाचारमें कुदेवसेवाको देवमूढ़ता कहा है । अस्तु, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy