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धर्मामृत ( सागार )
उनमें रोटी-बेटी व्यवहार नहीं था। किन्तु कुछ समयसे आन्दोलनके कारण इन जातियोंमें परस्परमें विवाह सम्बन्ध होने लगे हैं और धर्मकी दृष्टिसे यह उचित ही है। जीवनमें धर्मका महत्त्व जातिकी अपेक्षा विशिष्ट है। उच्चजातिसे उच्चधर्मकी प्राप्ति होना सम्भव नहीं है। किन्तु उच्चधर्मका पालन करनेसे नियमसे परभवमें सज्जातित्व प्राप्त होता है। अतः जातिके सामने धर्मकी अवहेलना करना उचित नहीं है। आशाधरजीने कन्यादानको पाक्षिक श्रावकके कर्तव्योंमें स्थान देकर बहुत ही उचित किया है। अपनी ज्ञान-दीपिका नामक पंजिकामें उन्होंने विवाहके सम्बन्धमें मनुस्मृति, महापुराण, नीतिवाक्यामृत आदिसे बहुत-सी सामग्री संकलित की है जो पठनीय है।
वर्तमान मनि-जैन मुनिकी चर्या अत्यन्त कठिन है और सामयिक स्थितिने उसे अत्यधिक कठिन बना दिया है। प्राचीन कालमें मुनि बनोंमें रहते थे। वही उनके दिगम्बरत्वके अनुकूल भी था। आचार्य
न्तभद्रने अपने रत्नकरण्ड श्रावकाचारमें ग्यारहवीं प्रतिमाके धारी श्रावकका वर्णन करते हुए लिखा है कि वह अपने घरसे मुनियोंके वनमें जाकर गुरुके पासमें व्रत ग्रहण करे और भिक्षा-भोजन करे तथा वस्त्रखण्ड रखे।
उत्तरकालमें तो इसमें बहुत-सा परिवर्तन और परिवर्द्धन हो गया है। गुणभद्राचार्यने अपने आत्मानशासनमें कलिकालमें मुनियों के ग्रामके समीप बसनेपर खेद व्यक्त किया है। परिस्थितिवश दिगम्बर जैन मुनि भी मन्दिरोंमें रहने लगे और उनके निमित्त दानादि लेने लगे और इस तरहसे शिथिलाचारी दिगम्बर मनियोंसे ही भट्टारक पन्थ प्रवर्तित हुआ । जिन आगमाभ्यासियोंको यह अरुचिकर प्रतीत हुआ वे ऐसे मुनियोंकी आलोचना करने लगे, जैसे आज भी करते हैं । जो अधिक कठोर हुए उन्होंने शायद शिथिलाचारियोंको आहारदान देना भी बन्द कर दिया, ऐसा प्रतीत होता है। सोमदेव सुरिने अपने उपासकाध्ययनमें वर्तमान कालके मुनियोंका पक्ष लेते हए कहा है-'भोजनमात्र देने में तपस्वियोंकी परीक्षा करना अनुचित है। वे अच्छे हों या बुरे हों, गृहस्थ तो दान देनेसे शुद्ध होता है । जैसे तीर्थंकरोंकी प्रतिमाएं पूज्य हैं उसी प्रकार आजके मुनियोंको पूर्वमनियों की प्रतिकृति मानकर पूजना चाहिए।' आशाधरजीने भी उन्हींका अनुसरण करते हुए कथन किया है । जो धर्म स्नेहवश उचित ही है। किन्तु शिथिलाचारकी ओरसे आँख बन्द कर लेनेसे शिथिलाचार अनाचारका भो रूप ले लेता है और उससे पवित्र मुनिमार्ग ही दूषित हो जाता है। उसके दूषित होनेसे व्यक्ति और परम्परा दोनोंका ही अहित होता है।
अतः जिनदीक्षा बहुत ही परीक्षापूर्वक देनी चाहिए। जिस किसीको भी मनिदीक्षा देनेसे पीछियोंकी संख्या अवश्य बढ़ जाती है किन्तु गुणोंमें ह्रास ही देखने में आता है। अतः आशाधरजीने जहाँ मुनियोंको उत्पन्न करनेकी प्रेरणा की है वहाँ उन्हें गुणवान् बनानेकी भी प्रेरणा की है।
इस तरह सागारधर्मामतका यह दूसरा अध्याय साधारण श्रावककी दृष्टिसे बहुत ही महत्वपूर्ण है। किन्तु खेद यही है कि आजके जैनकुलमें उत्पन्न होने मात्रसे अपनेको जैन कहनेवाले पाक्षिक श्रावक भी नहीं हैं । वे केवल नामसे जैन है। उनमें जैनत्वका पक्ष तो है किन्तु यह भी नहीं जानते कि जन किसे कहते हैं। जिनमें धर्मके प्रति रुचि है उनमें भी दो पक्ष पड़ गये हैं। एक पक्ष तत्त्वज्ञानका प्रेमी है तो दूसरा पक्ष चारित्रका पक्षपाती है। किन्तु जैनत्वके लिए दोनों ही आवश्यक है। जैसे चारित्रशून्य तत्त्वज्ञान शोभित नहीं होता, वैसे ही तत्त्वज्ञानशून्य चारित्र उपयोगी नहीं होता । आशाधरजीने लिखा है
"ज्ञानमयं तपोऽङ्गत्वात्तपोऽयं तत्परत्वतः ।
द्वयमयं शिवाङगत्वात्तद्वन्तोऽा यथागणम ।" 'तप (चारित्र) का कारण होनेसे ज्ञान पूज्य है और ज्ञानका कारण होनेसे तप भी पूज्य है। दोनों ही मोक्षके कारण हैं अतः दोनों पूज्य हैं। और जो ज्ञानी और तपस्वी हैं उन्हें भी उनके गुणोंके अनुसार पूजना चाहिए।'
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