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________________ प्रस्तावना १७ विवेचन मिलता है। और उसपर सोमदेवका ही प्रभाव परिलक्षित होता है, जो जैनधर्मकी परम्परा और उदारताके सर्वथा अनुकूल है । आशाधरजीने लिखा है-अहिंसा या दयालुता, सत्य भाषण, परद्रव्यसे निवृत्ति, परिग्रह परिमाण और निषिद्ध स्त्रियों में ब्रह्मचर्य यह सर्वसाधारण धर्म है अर्थात् इसे प्रत्येक वर्णवाला पाल सकता है। किन्तु अध्ययन, दान, पूजन तीन ही वर्ण कर सकते हैं और अध्यापन, याजन और दान लेना ब्राह्मणोंका ही धर्म है । इस कथनमें हिन्दू शास्त्रोंका ही विशेष प्रभाव परिलक्षित होता है। उसमें ही ब्राह्मण वर्णको यह अधिकार दिया गया है। दक्षिणमें उपाध्याय ही पूजन कराते और दान लेते हैं। आगे आशाधरजोने जो धर्मपात्रोंको दान देने की प्रेरणा की है उसके साथ भी इसकी संगति नहीं बैठती है। धर्मपात्रोंको दान देनेकी प्रेरणा-धर्मपात्रोंको गुणानुरागवश दान देनेकी प्रेरणा करते हुए लिखा है कि गहस्थको समयिक, साधक, समयद्योतक, नैष्टिक, और गणाधिपोंको दान-सम्मान आदिसे सन्तुष्ट करना चाहिए । जैन धर्मके पालक गृहस्थ या मुनिको समयिक कहते हैं । ज्योतिष मन्त्र आदि लोकोपकारक शास्त्रों के ज्ञाताको साधक कहते हैं । जो शास्त्रार्थ आदिके द्वारा जिनमार्गकी प्रभावना करता है उसे समयद्योतक कहते हैं। जो मूलगुण और उत्तरगुणोंके साथ तपमें लीन होता है उसे नैष्ठिक कहते हैं। और धर्माचार्य या गहस्थाचार्यको गणाधिप कहते हैं। ये सब दान सम्मान आदिके अधिकारी माने गये हैं। किन्तु ये किसी वर्णविशेषसे सम्बद्ध नहीं हैं । अतः आशाधरजीका ब्राह्मणको ही दानका अधिकारी बतलाना उचित प्रतीत नहीं होता। दानके भेद-आचार्य जिनसेनजीने अपने महापुराणमें पात्रदान, दयादान, समक्रियादान और अन्वयदान ये चार भेद करके दानकी दिशाको नयी गति दी है। उसीका अनसरण सोमदेवके उपासकाध्ययनमें किया गया है । पण्डित आशाधरजीने भी उनका अनुसरण किया है । सोमदेवजीने पात्रके पांच भेद किये हैंसमयी, साधक, साध, आचार्य और समयदीपक । ज्योतिष शास्त्र, मन्त्रशास्त्र, निमित्तशास्त्र और प्रतिष्ठाशास्त्रके ज्ञाताओंका सम्मान करनेकी प्रेरणा करते हुए उन्होंने लिखा है यदि ये न हों तो मुनिदीक्षा तीर्थयात्रा और बिम्बप्रतिष्ठा वगैरह धार्मिक क्रियाएँ कैसे हो सकती है क्योंकि मुहूर्त देखनेके लिए ज्योतिविदोंकी, और प्रतिष्ठा करने के लिए मन्त्रशास्त्र के ज्ञाता पण्डितोंकी आवश्यकता होती है। यदि अन्य धर्मावलम्बी ज्योतिषियों और मान्त्रिकोंसे पूछना पड़े तो अपने धर्मकी उन्नति कैसे हो सकती है। अतः जैन मन्त्रशास्त्र, जैन ज्योतिषशास्त्र और जैन क्रियाकाण्डके ज्ञाताओंका सम्मान करना आवश्यक है। इसी तरह जो शास्त्रार्थ तथा वक्त त्व कौशल द्वारा जैन धर्मकी प्रभावना करनेमें तत्पर रहते हैं उनका भी समादर करना गृहस्थोंका कर्तव्य है। ये दान समदत्ति कहलाता है । आशाधरजीने समदत्तीके विधानका उपदेश करते हुए लिखा है जो नामसे और स्थापनासे भी जैन है वह अजैन पात्रोंसे विशिष्ट है । एक जैनका उपकार करना श्रेष्ठ है हजारों अजैनोंसे । यह कथन आशाधरजीके गम्भीर धर्मप्रेमका परिचायक है। समदत्ति---कन्यादान भी समदत्ति में आता है । आशाधरजीने साधर्मीको कन्या देनेका विधान किया है। जिसका धर्म, क्रिया, मन्त्र, व्रत आदि अपने समान हो उसे साधर्मी कहते हैं। साधर्मीको कन्या देनेका कारण बतलाते हुए उन्होंने लिखा है जैन धर्मकी धार्मिक क्रियाएँ उनके मन्त्र व्रत नियम आदि अन्य धर्मोंसे भिन्न हैं । यदि कन्या अजैन कुलमें दी जाती है तो उसके व्रतनियम, देवपूजा, पात्रदान आदि सब छूट जाते हैं इस तरहसे उसका धर्म ही छूट जाता है। इसलिए कन्या साधर्मोको ही देना चाहिए। चारित्रसारमें भी इसी तरहका कथन है और उसीका अनुसरण आशाधरजीने किया है । लोकप्रचलित पद्धतिके अनुसार सजातीयको कन्या देनेका परिचलन रहा है। तदनुसार लोग सजातीय विधर्मीको भी अपनी कन्या देते हैं और तीय साधर्मीको कन्या नहीं देते। वर्तमानमें जैनधर्मके अन्तर्गत उसको माननेवाली अनेक जातियां पायी जाती हैं जिनका पूर्व इतिवृत्त अन्धकारमें है । प्रायः उन सबका धर्मकर्म समान है फिर भी जातिभेदके कारण [३] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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