SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 236
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ त्रयोदश अध्याय ( चतुर्थ अध्याय ) २०१ घटितमघटितं चानेक प्रकार मेवं रूप्यमपि । कनकं च रूप्यं च कनकरूप्यम् । तत्र दानात् स्वव्रतकालावधी पूर्णे गृहिष्यामीत्यभिप्रायेण तुष्टराजादितः स्वप्रतिपन्नसंख्यातोऽधिके लब्धेऽन्यस्मै वितरणाम्न मितिमतीयादन्यथा तृतीयोऽतिचारः स्यात् । कुप्ये रूप्यसुवर्णव्यतिरिक्ते कांस्यलोहता म्रसीसक त्रपु - मृद्भाण्ड-वंशविकारोदङ्किकाकाष्ठमञ्चकमञ्चिका-मशूरक-रथ-शकट-हलप्रभृतिद्रव्ये । भावात् द्वयोर्द्वयोमिलने नेकी करणरूपात्पर्यायान्तराद् व्रतावधी पूर्णे गृहीष्यामीत्यन्यप्रदेयतया व्यवस्थापनेनाथित्वरूपादभिप्रायाद्वा न मितिमतीयादन्यथा चतुर्थोऽतिचारः स्यात् । कुप्यस्य हि या संख्या कृता तस्याः कथंचिद्विगुणे सति व्रतभङ्गभयाद्भावतो द्वयोर्द्वयोमिलनेनैकीकरणरूपात्पर्यायान्तरात् स्वाभाविकसंख्याचारनात् [ -ख्याबाधनात् ] संख्यामात्र नूरणाच्चातिचारः । अथवा भावतोऽभिप्रायादथित्वलक्षणाद् विवक्षितकालावधेः परतो गृहिष्याम्यतो नान्यस्मै प्रदेयमिति पराप्रदेयतया व्यवस्थापयतोऽसौ स्यात् ||४|| गवादी - गौरादिर्यस्य द्विपदचतुष्पदवर्गस्यासौ गवादिः । आदिशब्देन हस्त्यश्व महिषादिचतुष्पदानां शुकसारिकादिद्विपदपक्षिणां पत्न्युपरुद्धदासपदात्यादीनां च संग्रहः । तत्र गर्भतो न मितिमतीयात् । गवादीनां गर्भग्रहणादुपलक्षणादन्येषां यथास्वमनाभोगादिनातिक्रमादिना वा संख्यां नातिक्रमेत् । गोमहिषीबडवादेहि विवक्षित संवत्सराद्यवधिमध्य एव प्रसवे अधिकगवादिभावाद् व्रतभङ्गः स्यादिति तद्भयात् १२ कियत्यपि काले गते गर्भग्रहणाद् गर्भस्यगवादिभावेन बहिस्तदभावेन च कथंचिद् व्रतभङ्गात् पञ्चमोऽतिचारः स्यात् ॥ ५ ॥ एते च ९ 'क्षेत्र वास्तुहिरण्यसुवर्णधनधान्यदासीदासकुप्यप्रमाणातिक्रमा:' [त. सू. ] इति तत्त्वार्थमतेन पश्चातिचाराः प्ररूपिताः । स्वाभिमतेन त्विमे - 'अतिवाहनातिसंग्रहविस्मयलोभातिभारवहनानि । परिमित परिग्रहस्य च विक्षेपाः पञ्च लक्ष्यन्ते ॥' [ रत्न. श्रा. ६२ ] सोना-चाँदी घड़ा हुआ या बिना घड़ा अनेक प्रकारका होता है । अपने व्रत के समयकी अवधि पूरी होने पर ग्रहण कर लूँगा इस भावनासे राजाने प्रसन्न होकर अपनी मर्यादासे अधिक द्रव्य दिया तो दूसरेके यहाँ रखकर परिमाणका अतिक्रमण नहीं करना चाहिए । अन्यथा तीसरा अतिचार होता है ||३|| चाँदी-सोनेसे अतिरिक्त काँसा, लोहा, ताँबा, सीसा, मिट्टी के बरतन, बाँससे बनी वस्तुएँ, काष्ठके मंच, रथ, गाड़ी, हल वगैरह कुप्य कहाते हैं । दो-दो बरतनोंको मिलाकर एक करना या व्रतकी अवधि पूरी हो जानेपर ग्रहण करूँगा इस अभिप्रायसे दूसरेको देकर परिमाणका उल्लंघन नहीं करना चाहिए। अन्यथा चौथा अतिचार होता है । कुप्यका जो परिमाण किया था उसको किसी प्रकार दुगुना कर लेनेसे, व्रत भंग होनेके भयसे, भावसे, दो-दो वस्तुओं को मिलाकर एक करनेसे, स्वाभाविक संख्या में बाधा आनेसे तथा संख्या मात्र पूरी करनेसे अतीचार होता है । अथवा किसी वस्तुकी आवश्यकता के अभिप्रायसे उस वस्तुके स्वामीसे यह कहकर कि अमुक कालके बाद मैं इसे ले लूँगा, तुम किसीको देना नहीं, वह वस्तु उसीके पास रखने से भी अतिचार होता है ||४|| गाय आदिसे हाथी, घोड़ा, भैंस आदि चौपाये, तोता, मैना आदि दोपाये, और पत्नीके द्वारा रखे गये दास, प्यादा आदि लेना । इनमें गर्भ से परिमाणका उल्लंघन नहीं करना चाहिए । अर्थात् गाय, भैंस, घोड़ी वगैरह यदि मेरी ली हुई मर्यादामें ही बच्चा देंगी तो संख्या बढ़ जाने से व्रत भंग होगा । इस भयसे कितना ही काल बीतनेपर उन्हें गर्भ धारण कराना पाँचवाँ अतिचार है । ये पाँच अतिचार तत्त्वार्थ सूत्र के अनुसार होते हैं । स्वामी सा. - २६ Jain Education International For Private & Personal Use Only ३ ६ १५ १८ www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy