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धर्मामृत ( सागार) उभयमुभयजलनिष्पाद्यसस्यम् । वास्तु च क्षेत्रं च वास्तुक्षेत्रमिति समाहारनिर्देशोऽत्र, उत्तरत्र च बाह्यग्रन्थस्य पञ्चविधत्वकल्पनया अतिचारपञ्चकस्य सुखयोजनार्थम् । तत्र वास्तुक्षेत्रे योगाद् भित्तिवृत्त्याद्यपनयनेन वास्तुक्षेत्रान्तरमीलनान्तरमाश्रित्य परिमितपरिग्रहः श्रावको, न मितिमतीयात्-देवगुरुसाक्षिकं व्रतग्रहणकाले यावज्जीवं चतुर्मासादिकालावधि वा प्रतिपन्नां संख्यां नातिक्रमेत् । वास्त्वादिकमेव मया विपुलीक्रियते, न प्रतिपन्ना तत्संख्यातिक्रम्यत इति बुद्धया तद्विषयं वा हस्तादिपरिमाणं सहसाकारादिना नातिक्रमेदन्यथा वास्तुक्षेत्रप्रमाणातिक्रमो नाम प्रथमोऽतिचारः स्याद् । व्रतसापेक्षस्यैव स्वबुद्धया व्रतभङ्गमकुर्वत एवातिचारत्वव्यवस्थापनात् ॥१॥ धनं गणिमादिभेदाच्चतुर्धा । तत्र गणिमं पूगजागजातिफलादि । धरिमं कुङ्कुमकर्पूरादि । मेयं स्नेहलवणादि । परीक्ष्यं रत्न वस्त्रादि । धान्यं ब्रीह्यादिभेदात् सप्तदशधा । उक्तं च
'ब्रीहिर्यवो मसूरो गोधूमो मुद्गमाषतिलचणकाः।
अणवः प्रियङ्गुकोद्रव-मयूष्ठकाः शालिराढक्यः ॥ [ ] किंच, कुलायकुलत्थोषणः सप्तदशधान्यानीति । धनं च धान्यं च धनधान्यम् । तत्र स्वगृहगतधनादे१२ विक्रये व्यये वा कृते गृहीष्यामीति भावनया बन्धनाद् रज्ज्वादिनियन्त्रणलक्षणात् सत्यनारदानादिरूपाद्वा
स्वीकृत्य धनधान्यं विक्रेतगृह एवावस्थापयन्न मितिमतीयादन्यथा द्वितीयोऽतिचारः स्यात् ॥२॥ कनकं सुवर्ण
(श्लो. १८७ ) में भी ऐसा ही कथन है। किन्तु इनके प्रमाणका अतिक्रम कैसे किया जाता है इसको पं. आशाधरजीने स्पष्ट किया है। इस श्लोककी टीकामें स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा है-'घर आदि और ग्राम-नगर आदिको वास्तु कहते हैं। घर आदि तीन प्रकारके होते हैं-खात, उच्छित और खात-उच्छ्रित । भूमि खोदकर जो तलघर बनाया जाता है वह खात है। भूमिके ऊपर जो महल आदि बनाया जाता है वह उच्छित है। और नीचे तलघरके साथ जो ऊपर मकान बनाया जाता है वह खात-उच्छित है। जिस भूमिमें अनाज पैदा होता है उसे क्षेत्र कहते हैं। उसके भी तीन भेद हैं-सेतु, केतु और सेतुकेतु। जिन खेतोंकी सिंचाई रहट वगैरह के पानीसे होती है उन्हें सेतु कहते हैं। जिन खेतों में वर्षाके जलसे धान्य पैदा होता है उन्हें केतु कहते हैं। और जिनमें दोनों प्रकारके जलसे अन्न पैदा होता है स्न खेतोंको सेतुकेतु कहते हैं। बाह्य परिग्रहको पाँच मानकर पाँच अतीचारोंका सुख पूर्वक बोध कराने के लिए यहाँ वास्तु और क्षेत्रको मिला दिया है। वास्तु और क्षेत्रमें बीचकी दीवार वगैरह हटाकर मकानमें दूसरा मकान और खेतमें दूसरा खेत मिलाकर परिग्रह परिमाण व्रतके धारी श्रावकको देव गुरुकी साक्षि पूर्वक व्रत ग्रहण करते समय जीवन पर्यन्तके लिए या चतुर्मास आदिकी अवधिके लिए स्वीकार की हुई संख्याका उल्लंघन नहीं करना चाहिए । मैं तो मकान वगैरहको बढ़ाता हूँ, स्वीकार की गयी संख्याको तो नहीं बढ़ाता' इस प्रकारकी भावनासे परिमाणका अतिक्रम नहीं करना चाहिए । अन्यथा वास्तुक्षेत्र प्रमाणातिक्रम नामका प्रथम अतिचार होता है; क्योंकि जो व्रतकी अपेक्षा रखते हुए अपनी बुद्धिसे व्रत भंग नहीं करता उसे ही अतिचार कहा है ॥१॥
धनके चार भेद हैं। सुपारी जातिफल आदिको गणिम कहते हैं। केसर कपूर आदिको धरिम कहते हैं। तेल नमक आदिको मेय कहते हैं। रत्न वस्त्र आदिको परीक्ष्य कहते हैं । धान्य पन्द्रह प्रकारके होते हैं। धान, जौ, मसूर, गेहूँ, मूंग, उड़द, तिल, चना, अणव, प्रियंगु, कोदो, शालि, अरहर वगैरह । अपने घरमें वर्तमान धन आदिके बिक जाने पर या खर्च हो जाने पर लेलँगा, इस भावनासे धन धान्यको विक्रेताके घरमें ही बन्धक रखकर परिमाणका अतिक्रम नहीं करना चाहिए । अन्यथा दूसरा अतिचार होता है ॥२॥
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