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________________ त्रयोदश अध्याय ( चतुर्थं अध्याय ) अविश्वास तमोनक्तं लोभानलघृताहुतिः । आरम्भमकराम्भोधिरहो श्रेयः परिग्रहः ॥६३॥ 'असन्तोषमविश्वासमारम्भं दुःखकारणम् । मत्वा मूर्छाफलं कुर्यात्परिग्रह नियन्त्रणम् ॥' [ योगशा. २।१०६ ] ॥ ६३॥ अथ पञ्चमाणुव्रतातिचारपञ्चक निषेधविधिमाह वास्तुक्षेत्रे योगाद्धनधान्ये बेन्धनात् कनकरूप्ये । दानात्कुये भावान्न गवादौ गर्भतो मितिमतीयात् ॥६४॥ वास्तु - गृहादि ग्रामनगरादि च । तत्र गृहादि श्रेधा, खातोच्छ्रिततदुभयभेदात् । तत्र खातं भूमिगृहादिक मुच्छ्रितं प्रासादादिकम् । खातोच्छ्रितं च भूमिगृहस्योपरि गृहादिसन्निवेशः । क्षेत्रं सस्योत्पत्तिभूमिः । तत्त्रेधासेतुकेतूभयभेदात् । तत्र सेतुक्षेत्रं यदरघट्टा दिजलेन सिच्यते । केतुक्षेत्रमाकाशोदकपातनिष्पाद्यसस्यम् । सहन तथा देश-काल और जातिका ध्यान रखकर ही परिमाण करना चाहिए जिससे आगे निर्वाह में कोई कठिनाई उपस्थित न हो। इसके साथ ही ऐसा लम्बा-चौड़ा परिमाण भी न लेना चाहिए जिसमें कुछ त्यागना ही न पड़े। उदाहरण के लिए पासमें दस हजार की पूँजी होते हुए एक लाखका परिणाम करना एक तरह से निरर्थक है । किन्तु कुछ भी परिमाण न करनेसे परिमाण करना श्रेष्ठ है उससे मनुष्यकी तृष्णापर नियन्त्रण होता है । यह इस व्रतका उद्देश्य भी है ||६२|| १९९ वक्रोक्ति द्वारा परिग्रहके दोष बतलाते हैं- अविश्वासरूप अन्धकार के लिए रात्रिके समान, लोभरूपी अग्निके लिए घीकी आहुति के समान और आरम्भरूपी मगरमच्छों के लिए समुद्रके समान परिग्रह पुरुषोंके लिए सेवनीय है अथवा कल्याणकारी है यह आश्चर्य है ||६३ || विशेषार्थ – जैसे रात्रि अन्धकारका कारण है वैसे ही परिग्रह अविश्वासका कारण है । परिग्रही व्यक्ति किसीका भी विश्वास नहीं करता। रात्रिमें सोता नहीं, और दिनमें भी सशंक रहता है कि कोई मेरा धन न हर ले । तथा जैसे आग में घी डालने से आग प्रज्वलित होती है वैसे ही परिग्रह के बढ़ने से लोभ बढ़ता है । और लोभ आगके ही समान चित्तको सन्ताप देनेवाला होता है । तथा जैसे समुद्र में मगरमच्छ रहते हैं वैसे ही परिग्रह होनेसे मनुष्य खूब रोजगार-धन्धा फैलाता है । उसकी कभी तृप्ति नहीं होती। ऐसे परिग्रहको लोग अच्छा मानते हैं यही आश्चर्य है । कहा है- ' परिग्रहका फल असन्तोष, अविश्वास, आरम्भ और ममत्व है जो दुःखका कारण है इसलिए परिग्रहका नियन्त्रण करना चाहिए' ||६३ || आगे परिग्रह परिमाण अणुव्रत के पाँच अतिचारोंका निषेध करते हैं घर और खेत में दूसरा घर और खेत मिलाकर, धन और धान्यमें बन्धनको लेकर, सोने-चाँदीमें दानसे, सोने-चाँदीसे अतिरिक्त काँसा आदि में भावसे और गाय-भैंस आदि में गर्भ से किये गये परिग्रह परिमाणकी मर्यादाका उल्लंघन श्रावकको नहीं करना चाहिए ||६४ || विशेषार्थ - तत्त्वार्थ सूत्र में क्षेत्र, वास्तु, हिरण्य, सुवर्ण, दासी, दास, धन-धान्य और कुप्यके प्रमाणके अतिक्रमको परिग्रह परिमाण व्रतके अतीचार कहा है । पुरुषार्थसिद्धयुपाय १. ' बन्धनाद् भावतो गर्भाद्योजनाद् दानतस्तथा । प्रतिपन्नव्रतस्यैष पञ्चधाऽपि न युज्यते ॥ - योगशास्त्र ३।९६ | Jain Education International For Private & Personal Use Only ३ ६ www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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