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________________ धर्मामृत ( सागार) अत्रातिवाहनं लोभावेशवशाद् वृषादीनां शक्त्यतिक्रमेण हठान्मार्गे नयनम् । अतिसंग्रहः - इदं धान्यादिकमग्रे विशिष्टं लाभं च दास्यतीति लोभावेशादतिशयेन तत्संग्रहणम् । अतिविस्मयः - धान्यादी ३ प्रपन्नलाभेन विक्रीते मूलतोऽप्यसंगृहीते वा तत्क्रयाणकेनाधिकेऽर्थे लब्धे लोभावेशादधिकविषादः । अतिलोभः - विशिष्टेऽर्थे लब्धेऽपि अधिक लाभाकाङ्क्षा । अतिभारवाहनं - लोभावेशादधिकभारारोपणम् । सोमदेव पण्डित स्त्विदमाह - ६ ९ १२ २०२ 'कृतप्रमाणाल्लोभेन धनादधिकसंग्रहः । पञ्चमाणुव्रतज्यानिं करोति गृहमेधिनाम् ॥' [ सो. उपा. ४४४ ] तदेतच्च 'परेऽप्यूह्यास्तथाऽत्ययाः' इत्यनेन संगृहीतम् ||६४|| [ एवं निर्मलीकृतपरिग्रहव्रतपालकस्य फलं दृष्टान्तेन स्फुटयन्नाह--] यः परिग्रहसंख्यानव्रतं पालयतेऽमलम् । जय वज्जितलोभोऽसौ पूजातिशयमश्नुते ॥ ६५॥ [यः पालयते रक्षयति । किं तत् परिग्रहसंख्यानव्रतम् । कथं कृत्वा, अमलं यथोक्तातिचाररहितम् । असो श्रावकः पूजातिशयं शक्रादिकृतमर्च नामश्नुते लभते । किंविशिष्टः, यतो जितलोभः जितलोभत्वादित्यर्थः । किंवत्, जयवत् मेघस्वराख्यकुरुराजो यथा ॥ ६५॥ ] समन्तभद्रके मत से पाँच अतिचार इस प्रकार हैं- अतिवाहन अर्थात् लालचवश बैल वगैरहको उसकी शक्ति से अधिक जबरदस्ती चलाना । अतिसंग्रह - यह धान्य वगैरह आगे बहुत लाभ देगा इस लोभसे अतिसंग्रह करना । विस्मय - धान्य आदिको प्राप्त लाभसे बेच देनेपर या धान्यका संग्रह ही न करनेपर और उसके खरीदनेवालोंको अधिक लाभ हुआ देखकर खेदखिन्न होना । अतिलोभ - खूब लाभ होनेपर भी और अधिक लाभकी इच्छा होना । अतिभारवहन - लोभके आवेश में अधिक भार लादना । ये पाँच अतिचार स्वामी समन्तभद्रके मतसे हैं । सोमदेव पण्डितने कहा है- 'लोभमें आकर किये हुए प्रमाणसे धनधान्यका अधिक संग्रह गृहस्थोंके पाँचवें अणुव्रतकी हानि करता है । इन सब अतिचारोंका ग्रहण पहले कहे गये इस वाक्यसे हो जाता कि अन्य भी अतिचार विचारणीय हैं ||६४ | इस प्रकार निरतिचार परिग्रह व्रतको पालन करनेवालेको प्राप्त फलका कथन दृष्टान्तपूर्वक करते हैं जो निरतिचार परिग्रह परिमाण व्रतको पालता है वह लोभको जीतनेसे कुरुराज जयकुमार की तरह इन्द्रादिकके द्वारा पूजित होता है ॥ ६५ ॥ Jain Education International विशेषार्थ - आचार्य समन्तभद्रने परिग्रह परिमाण व्रतमें जयकुमारका उल्लेख किया है । यह हस्तिनापुरके राजा सोमप्रभके पुत्र थे । इनकी रानीका नाम सुलोचना था । एक बार जयकुमार सुलोचनाके साथ कैलास पर्वतकी वन्दना के लिए गये। उधर इन्द्र अपन सभा में जयकुमारके परिग्रह परिमाण व्रतकी प्रशंसा की तो एक देव उनकी परीक्षा लेने आया । उसने स्त्रीका रूप बनाया तथा अन्य चार स्त्रियोंके साथ आकर जयकुमारसे बोलासुलोचनाके स्वयंवरके समय जिसने तुम्हारे साथ संग्राम किया था उस विद्याधरोंके स्वामी मिका रानी बहुत सुन्दर है । वह तुम्हें चाहती है । यदि उसका राज्य और जीवन चाहते हो तो उसे स्वीकार करो । यह सुनकर जयकुमारने उत्तर दिया- 'मैं परिग्रह परिमाणव्रती For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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