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________________ ३ ૬ १९६ rr परिग्रहपरिमाणाव्रतं व्याचष्टे ममेदमिति सङ्कल्पश्चिद चिन्मिश्रवस्तुषु । ग्रन्थस्तत्कर्शनात्तेषां कर्शनं तत्प्रमाव्रतम् ॥५९॥ मिश्रं - चेतनाचेतनम् । बहिः पुष्पवाटिकादिकमन्तश्च मिथ्यात्वादिकम् । तत्प्रमाव्रतं -- परिग्रहपरिमाणाख्यमणुव्रतम् । उक्तं च 'ममेदमिति संकल्पो बाह्याभ्यन्तरवस्तुषु । परिग्रहो मतस्तत्र कुर्याच्चेतो निकुञ्चनम् ॥' [ सो. उपा. ४३२ ] अपि च धर्मामृत ( सागार) 'धनधान्यादिग्रन्थं परिमाय ततोऽधिकेषु निस्पृहता । परिमितपरिग्रहः स्यादिच्छापरिमाणनामापि ॥' [ रत्न. श्रा. ६१ ] ॥५९॥ सूरने परस्त्रीसंगम, अनंगक्रीड़ा, अन्य विवाहकरण, तीव्रता और विटत्वको अतिचार कहा है । उन्होंने इत्वरिकागमन के स्थान में 'परस्त्रीसंगम' रखा है क्योंकि इत्वरिकामें तो वेश्या भी आ जाती है ||१८|| अब परिग्रहपरिमाण अणुव्रतको कहते हैं चेतन, अचेतन और चेतन-अचेतन वस्तुओंमें 'ये मेरी है' इस प्रकार के संकल्पको परिग्रह कहते हैं । और उस ममत्व परिणामरूप परिग्रहको कम करके उन चेतन, अचेतन और चेतन-अचेतन वस्तुओंका कम करना परिग्रहपरिमाण व्रत है ॥ ५९ ॥ विशेषार्थ - स्त्री-पुत्र आदि चेतन वस्तु हैं । घर-सुवर्ण आदि अचेतन वस्तु हैं । और बाह्य पुष्पवाटिका आदि तथा अभ्यन्तर मिथ्यात्व आदि चेतन-अचेतन हैं । ये चेतन या अचेतन या चेतन-अचेतन वस्तु मेरी हैं, मैं इनका स्वामी हूँ इस प्रकार के मानसिक अध्यवसायको-ममत्व परिणामको परिग्रह कहते हैं । तत्त्वार्थ सूत्रे में भी मूर्च्छाको परिग्रह कहा है । उसकी व्याख्या करते हुए पूज्यपाद स्वामीने सर्वार्थसिद्धि में कहा है - बाह्य गाय, भैंस मणिमुक्ता आदि चेतन-अचेतन वस्तुओंके तथा राग आदि अभ्यन्तर परिग्रहोंके संरक्षण, उपार्जन, संस्कार आदिरूप संलग्नताको मूर्छा कहते हैं । इसपरसे यह प्रश्न होता है कि यदि ममत्व परिणामरूप मूर्च्छा परिग्रह है तो बाह्य सम्पत्ति स्त्री-पुत्रादि परिग्रह नहीं कहलायेंगे; क्योंकि मूर्च्छाको परिग्रह माननेसे तो आध्यात्मिकका ही ग्रहण होता है । इसके समाधान में कहा है कि आपका कहना सत्य है । ममत्वभाव ही प्रधान परिग्रह है अतः उसीका ग्रहण किया है । बाह्य परिग्रहके नहीं होते हुए भी जिसमें यह मेरा है इस प्रकारका ममत्वभाव है वह परिग्रही होता है । तब पुनः प्रश्न हुआ कि तब तो बाह्य परिग्रह नहीं ही होती । इसके उत्तर में कहा है कि बाह्य भी परिग्रह होती है क्योंकि वह मूर्छाका कारण है । स्त्री, पुत्र, धनादिके होनेपर ममत्वभाव होता है और जहाँ ममत्वभाव हुआ, तत्काल उसके संरक्षण आदि की चिन्ता हो जाती है । किन्तु परिग्रहका मूल ममत्वभाव है इसलिए उसमें कमी करके बाह्य परिग्रहको कम करना परिग्रहपरिमाण व्रत है । इसीसे स्वामी समन्तभद्रने १. 'मूर्च्छा परिग्रहः' । –त. सू. ७।१७ | Jain Education International 'या मूर्छा नामेयं विज्ञातव्यः परिग्रहो ह्येषः । मोहोदयादुदीर्णो मूर्च्छा तु ममत्वपरिणामः ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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