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________________ त्रयोदश अध्याय (चतुर्थ अध्याय ) १९७ अथान्तरङ्गसङ्गनिग्रहोपायमाह उद्यत्क्रोधादिहास्यादिषट्कवेदत्रयात्मकम् । अन्तरङ्ग जयेत्सङ्ग प्रत्यनोकप्रयोगतः॥६०॥ उद्यन्ति-विपच्यमानानि । उदितानां दुर्जयत्वात् । क्रोधादयः अनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानवर्जास्तान्मिथ्यात्वसहितान्निगृह्मैव देशसंयमस्य प्रवृत्तत्वात् । प्रत्यनीकप्रयोगतः-उत्तमक्षमादिभावनया ॥६०॥ इस व्रतका दूसरा नाम इच्छापरिमाण दिया है। उन्होंने धन-धान्य आदिका परिमाण करके उससे अधिककी इच्छा न करनेको परिग्रहपरिमाण व्रत कहा है और उसका दूसरा नाम इच्छापरिमाण कहा है । इच्छाका परिमाण करके ही परिग्रहका परिमाण किया जाता है। यदि इच्छाकी सीमा न हो तो परिग्रहका परिमाण करना व्यर्थ ही है। मनुष्यकी तृष्णामें उससे. कमी नहीं होती। और तृष्णाको कम करने के लिए ही यह व्रत होता है। अमृतचन्द्राचार्यने भी अपने पुरुषार्थसिद्धयुपायमें उक्त सब कथन किया है ।।५९॥ आगे अन्तरंग परिग्रहके निग्रहका उपाय कहते हैं उदयको प्राप्त प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन क्रोध-मान-माया-लोभ, हास्य-रतिअरति-शोक-भय-जुगुप्सा, स्त्रीवेद-पुरुषवेद-नपुंसक वेद इस अन्तरंग परिग्रहको इनके विरोधी उत्तम क्षमा आदि भावनाओंके द्वारा परिग्रह परिमाणव्रती वशमें करे ॥६०॥ विशेषार्थ-परिग्रहके मूल भेद दो हैं-अन्तरंग और बाह्य । अन्तरंग परिग्रहके चौदह भेद हैं और बाह्य परिग्रहके दस भेद हैं। मिथ्यात्व, क्रोध-मान-माया-लोभ, हास्य, रतिअरति, शोक-भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसक वेद, ये सब मोहनीय कर्मका परिवार अन्तरंग परिग्रह है। यहाँ ग्रन्थकारने मिथ्यात्वको नहीं गिनाया है। तथा क्रोधादिके चार प्रकारोंमें-से भी अनन्तानुब और अप्रत्याख्यानावरणको वरणको नहीं गिनाया है। क्योंकि मिथ्यात्वके साथ इन आठ कषायोंका निग्रह करनेपर ही सम्यग्दर्शनपूर्वक देशसंयम प्रकट होता है । और यहाँ देशसंयमीका ही कथन है। अतः उसके शेष आठ कषाय, हास्य आदि छह और तीन वेद ही रहते हैं। यहाँ उनके साथ 'उद्यत्' शब्दका प्रयोग किया है। उसका अर्थ होता है उदयको प्राप्त । जब कोई कषाय उदयमें आती है तो उसको जीतना कठिन होता है। इनको जीतनेका उपाय है उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव, उत्तम शौच आदिकी भावना । उसीसे इनको जीता जा सकता है ॥६०|| मूलिक्षण करणात्सुघटा व्याप्तिः परिग्रहत्वस्य । सग्रन्यो मूर्छावान् विनापि किल शेषसंगेभ्यः' ॥-पुरुषार्थः १११-११२ आदि । १. "मिथ्यात्ववेदरागास्तथैव हास्यादयश्च षड्दोषाः । चत्वारश्च कषायाश्चतुर्दशाभ्यन्तरा ग्रन्थाः' ॥-पुरुषार्थ. ११६ श्लो.। २. 'तत्त्वार्थाश्रद्धाने निर्युक्तं प्रथममेव मिथ्यात्वम् । सम्यग्दर्शनचौराः प्रथमकषायाश्च चत्वारः ।। प्रविहाय च द्वितीयान् देशचरित्रस्य संमुखायाताः । नियतं ते हि कषाया देशचरित्रं निरुद्धयन्ति ।। निजशक्त्या शेषाणां सर्वेषामन्तरङ्गसङ्गानाम् । कर्तव्यः परिहारो मावशीचादिभावनया ॥'-पुरुषार्थ. १२४-१२६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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