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त्रयोदश अध्याय ( चतुर्थ अध्याय ) एवं प्रतिषिद्धाचरणाद्धङ्गो नियमाबाधनाच्चाभङ्ग इत्येतेऽपि विटत्वादयस्त्रयोऽतिचाराः। स्त्रियास्तु पूर्ववत्परविवाहकरणादयः। प्रथमस्तु यदा स्वकीयपतिर्वारकदिने स्वपल्या परिगृहीतो भवति तदा सपत्नीवारकं विलुप्य तं परिभुञ्जानाया अतिचारोऽक्रमादिना च परपुरुष स्वपति वा ब्रह्मचारिणमभिसरन्त्याः स्यात् । पञ्च । यत्स्वामी
'अन्यविवाहकरणानङ्गक्रीडा विटत्वविपुलतृषः ।
इत्वरिकागमनं चास्मरस्य पञ्च व्यतीचाराः॥ [ रत्न. श्रा. ६०] सोमदेवबुधस्त्विदमाह
'परस्त्रीसङ्गमोऽनङ्गक्रीडाऽन्योपयमक्रिया । तीव्रता रतिकैतव्ये हन्युरेतानि तद्वतम् ।।' [ सो. उपा. ४१८ ] ॥५८॥
पर भी चमड़े आदिके बने कृत्रिम लिंगोंसे स्त्रियोंके गुह्य स्थानको बार-बार कुरेदना, या केशोंके आकर्षण आदिके द्वारा क्रीड़ा करके प्रबल राग उत्पन्न करना भी अनंगक्रीड़ा है। यद्यपि श्रावक अत्यन्त पापभीरु होनेसे ब्रह्मचर्य पालना चाहता है । तथापि जब वेदके उदयको न सह सकनेके कारण ब्रह्मचर्यको पालने में असमर्थ होता है तब निर्वाह के लिए स्वदारसन्तोष आदि व्रत लेता है। मैथुन मात्रसे निर्वाह होनेपर विटत्व आदि तीनका प्रतिषेध वास्तव में हो जाता है। क्योंकि उनसे कुछ भी लाभ नहीं है। बल्कि शीघ्रपतन, बलक्षय, मूछी, राजयक्ष्मा आदि रोग हो जाते हैं। कहा भी है-'आसक्तिको छोड़कर शरीरके सन्तापकी शान्ति तथा दुर्ध्यानको कम करनेके लिए भोगोंको आहारकी तरह भोगना चाहिए।' इस प्रकार निषिद्ध आचरण करनेसे व्रतका भंग और नियममें बाधा न करनेसे व्रतका अभंग होनेसे ये विटत्व आदि तीनों अतिचार रहते हैं।
___ अथवा स्वदारसन्तोषी 'मैंने वेश्या आदिमें मैथुनका ही त्याग किया है', ऐसा मानकर मैथुन नहीं करता किन्तु विटत्व आदि करता है। तथा परस्त्रीका त्यागी परस्त्रियोंमें मैथुन नहीं करता परन्तु अशिष्ट वचनका प्रयोग, आलिंगन आदि क्रिया करता है। अतः कथंचित् व्रतकी अपेक्षा होनेसे विटत्व आदि अतिचार होते हैं। स्वपति सन्तोष या परपुरुषत्यागका व्रत लेनेवाली स्त्रियोंमें भी परविवाहकरण आदि अतिचार पुरुषकी तरह लगा लेना चाहिए। पहला अतिचार इस प्रकार जानना कि यदि किसी पतिकी दो या अधिक स्त्रियाँ हैं और उसने प्रत्येक स्त्रीका दिन नियत कर दिया है। तो जिस दिन दूसरी स्त्रीका नियत है उस दिन स्वयं अपने पतिको भोगनेसे प्रथम अतिचार लगता है। अथवा अपने पतिको परपुरुष जैसा मानकर भोग करनेसे प्रथम अतिचार होता है। हेमचन्द्राचार्यने स्त्रीके स्वपुरुषसन्तोष और परपुरुषत्याग व्रतको एक ही माना है। तथा स्वदारसन्तोषव्रती पुरुषके पाँचों अतिचार कहे हैं और परस्त्रीत्यागीके अन्तिम तीन ही अतिचार कहे हैं। तथा एक दूसरे मतके अनुसार परस्त्रीत्यागीके पाँच और स्वदारसन्तोषीके तीन अतिचार कहे हैं। इससे प्रतीत होता है कि ब्रह्मचर्याणुव्रतके अतिचारोंकी व्याख्यामें मतभेद है। पं. आशाधर जीने जो स्वदारसन्तोषीके लिए वेश्यासेवनको अतिचार कहा है उसपर सोमदेव सूरिके ब्रह्माणुव्रतके लक्षणका भी प्रभाव प्रतीत होता है। आचार्य समन्तभद्रने परदारनिवृत्ति और स्वदार सन्तोषको भिन्न नहीं माना। एक ही माना है। उन्होंने अन्य विवाहकरण, अनंगक्रीड़ा, विटत्व, विपुलतृषा, और इत्वरिकागमन ये पाँच अतिचार कहे हैं और सोमदेव
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