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________________ १८२ त्रयोदश अध्याय (चतुर्थ अध्याय ) 'पव्वेसु इत्थिसेवा अणंगकोडा सया विवज्जंतो। थूलयडब्रह्मयारी जिणेहि भणिदो पवयणम्मि ॥' [ वसु. श्रा. २१२ ] यश्च 'सम्यग्दर्शनशुद्ध' इत्यादि स्वामिमतेन दर्शनिको भवेत्तस्यैतद् ब्रह्माणुव्रतमतिचारवर्जनार्थमेवा- 3 त्रानूद्यते ॥५२॥ अथ यद्यपि गृहस्थस्य प्रतिपन्नं व्रतमनुपालयतो न तादृशः पापबन्धोऽस्ति तथापि यतिधर्मानुरक्तत्वेन तत्प्राप्तेः प्राग्गार्हस्थ्यऽपि कामभोगविरक्तः सन श्रावकधर्म परिपालयतीति तं वैराग्यकाष्ठामपनेतुं सामान्येनाब्रह्मदोषानाह सन्तापरूपो मोहाङ्गसादतष्णानुबन्धकृत् । स्त्रीसम्भोगस्तथाप्येष सुखं चेत्का ज्वरेऽक्षमा ।।५३॥ सन्तापरूपः स्त्रीसम्पर्कस्य पित्तप्रकोपहेतुत्वात् । यद्वद्याः पं. आशाधरजीने इस तरह एक ही ब्रतके दो नामोंको अलग करके ब्रह्माणुव्रतके दो भेद कर दिये हैं। उन्हें इन भेदोंके करनेमें मुख्य बल सोमदेवके लक्षणसे मिला प्रतीत होता है। सोमदेवने जो ब्रह्माणवतीको स्वस्त्री और वित्तस्वीकी छूट दी है यह ब्रह्माणुव्रती देशसंयम का अभ्यासी ही हो सकता है। ऊपर आशाधरजी-ने उसीको लक्ष करके लिखा है कि जो स्वस्नीकी तरह साधारण स्त्रियोंका भी नियम लेने में असमर्थ है और केवल परस्त्रियोंका ही नियम लेता है वह भी ब्रह्माणुव्रती है। इसीलिए उन्होंने अपने लक्षणमें अन्य स्त्री और प्रकट स्त्री ( वेश्या) का त्याग कराया है। यह प्रकट स्त्री वही है जिसको सोमदेवजीने वित्त स्त्री कहा है । साधारण स्त्री भी उसे ही कहते हैं । सोमदेवजीने पाँचों अणुव्रतोंके जो लक्षण कहे हैं वे सब देश संयमके अभ्यासीको लक्षमें रखकर कहे हैं। उनमेंसे किसीमें भी नौ संकल्पोंसे त्यागकी बात नहीं है। नौ संकल्पोंसे या कृतकी तरह कारितसे त्याग अभ्यासी नहीं कर सकता । तत्त्वार्थ सूत्रादिमें प्रतिपादित अतिचार भी अभ्यासीको ही लक्षमें रखकर कहे गये हैं। अस्तु, बुद्धिमान् मनुष्यको मन, वचन, कायसे विषवेलकी तरह परस्त्रीका सर्वथा त्याग करके स्वस्नीमें ही सन्तोष करना चाहिए । तथा कामसे पीड़ित होनेपर अपनी पत्नीका भी सेवन अति आसक्तिसे नहीं करना चाहिए । शीतसे पीड़ित मनुष्य यदि आगकी लपटोंका सेवन अति आसक्तिसे करे तो आग उन्हें जला देती है। कहा है-'विषय सेवनका फल नपुंसकता या लिंगच्छेद जानकर बुद्धिमान्को स्वदारसन्तोषी होना चाहिए और परस्त्रियोंका त्याग करना चाहिए ॥५२॥ यद्यपि स्वीकार किये गये व्रतको पालन करनेवाले गृहस्थको वैसा पापबन्ध नहीं होता जैसा अव्रतीको होता है। तथापि मुनिधर्मका अनुरागी ही गृहस्थ धर्मको पालता है इसलिए मुनिधर्म धारण करनेसे पहले गृहस्थ अवस्थामें भी जो कामभोगसे विरक्त होकर श्रावक धर्मको पालता है उसे वैराग्यकी अन्तिम सीमा पर ले जानेके लिए सामान्यसे अब्रह्मके दोष बतलाते हैं स्त्रीसम्भोग सन्तापरूप है, मोह, अंगसाद और तृष्णाको बढ़ानेवाला है, फिर भी यदि यह सुख है अर्थात् हे आत्मन् ! यदि तू सुख मानता है तो ज्वरमें कौन कमी है उसे भी सुख मानना चाहिए ॥५३॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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