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________________ १८८ धर्मामृत ( सागार) 'षण्ढत्वमिन्द्रियच्छेदं वीक्ष्याब्रह्मफलं सुधीः । भवेत्स्वदारसंतुष्टोऽन्यदारान्वा विवर्जयेत् ॥' [ योगशा. २१७१ ] ___ तत्राद्यमभ्यस्तदेशसंयमस्य नैष्ठिकस्येष्यते । द्वितीयं तु तदभ्यासोन्मुखस्य । तदाह श्रीसोमदेवपण्डितः 'वधूवित्तस्त्रियो मुक्त्वा सर्वत्रान्यत्र तज्जने । माता स्वसा तनूजेति मतिर्ब्रह्मगृहाश्रमे ॥' [ सो. उपा. ४०५ ] यस्तु पंचुंबरसहियाई' इत्यादि वसुनन्दिसैद्धान्तमतेन दर्शनप्रतिमां प्रतिपन्नस्तस्येदं तन्मतेनैव व्रतप्रतिमां विभ्रतो ब्रह्माणुव्रतं स्यात् । तद्यथाव्रतप्रतिमाके अन्तर्गत अणुव्रतोंका वर्णन करते हैं और अतिचार वे ही बतलाते हैं जो तत्त्वार्थ सूत्र आदिमें साधारण अणुव्रतोंके कहे हैं। स्वदारसन्तोषव्रतका उनका लक्षण भी दूसरोंसे भिन्न है। स्वामी समन्तभद्रने जो पापके भयसे परस्त्रियोंका सेवन न स्वयं करता है और दूसरोंसे कराता है उसे परदारनिवृत्ति या स्वदारसन्तोष नाम दिया है। किन्तु आशाधरजीने परदारनिवृत्ति और स्वदारसन्तोषको अलग व्रत स्वीकार किया है। वह इसी श्लोककी अपनी टीकामें लिखते हैं-यह निरतिचार ब्रह्माणुव्रत मद्य मांस मधु पाँच उदुम्बर फलोंके त्यागरूप अष्ट मूलगुणोंके धारक विशुद्ध सम्यग्दृष्टी श्रावकके बतलाया है। जो स्वस्त्रीके समान साधारण स्त्रियोंको भी त्यागनेमें असमर्थ है केवल परस्त्रियोंका ही त्याग करता है वह भी ब्रह्माणुव्रती माना जाता है। ब्रह्माणुव्रतके दो भेद हैं-स्वदारसन्तोष और परदारनिवृत्ति । ये भेद ऊपर ब्रह्माणुव्रतके लक्षणमें अन्यस्त्री और प्रकट-स्त्री इन दो प्रकारकी स्त्रियोंके सेवनके निषेधसे प्रकट होते हैं। जो देशसंयममें अभ्यस्त नैष्ठिक श्रावक है वह स्वदारसन्तोषव्रतको धारण करता है । और जो देश संयमका अभ्यासी है वह परदारनिवृत्तिको स्वीकार करता है। सोमदेव पण्डितने कहा है-'स्वस्त्री और वित्तस्त्रीको छोड़कर अन्य सब स्त्रियों में माता, बहन, बेटीकी भावना रखना गृहस्थका ब्रह्माणुव्रत है।' वसुनन्दि सैद्धान्तिके मतसे जो पाँच उदुम्बर सहित सात व्यसनोंको छोड़ता है और जिसकी मति सम्यक्त्वसे विशुद्ध है वह प्रथम दर्शन प्रतिमा का धारी श्रावक है । उसी दर्शन प्रतिमाधारी श्रावकके ब्रह्माणुव्रतका लक्षण वसुनन्दिने इस प्रकार कहा है-जो पर्वके दिनों में स्त्री सेवन नहीं करता और सदा अनंगक्रीड़ा नहीं करता, उसे जिनेन्द्रने परमागममें स्थूल ब्रह्मचारी कहा है। किन्तु स्वामी समन्तभद्रने प्रथम दर्शन श्रावकका स्वरूप इस प्रकार कहा है-जो शुद्ध सम्यग्दर्शनका धारी है, संसार शरीर और भोगोंसे विरक्त है, पंच गुरुके चरण ही उसके शरण हैं तथा तत्त्व पथका उसे पक्ष है वह दर्शन प्रतिमाका धारी श्रावक है। उसी प्रथम प्रतिमाधारी श्रावकके ब्रह्माणुव्रतका स्वरूप अतिचार छुड़ानेके लिए ही यहाँ कहा है।' १. 'वधूवित्तस्त्रियो मुक्त्वा सर्वत्रान्यत्र तज्जने । माता स्वसा तनूजेति मतिब्रह्मगृहाश्रमे ।। -सो. उपा. ४०५ श्लो. । २. 'पंचुवर सहियाई सत्तविवसणाई जो विवज्जेइ । सम्मत्त विसुद्धमई सो दंसणसावयो भणिओ ॥' -वसु, श्रा. २०५ गा.। ३. पव्वेसु इत्थीसेवा अणंगकीड़ा सया विवज्जेइ । थूल पडबंभयारी जिणेहि भणिओ पवयणम्भि ॥ -वसु. श्रा. २१२ गा. । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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