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________________ १८७ त्रयोदश अध्याय ( चतुर्थ अध्याय ) अथ स्वदारसंतोषिणं व्याचष्टे-- सोऽस्ति स्वदारसन्तोषी योऽन्यस्त्रीप्रकटस्त्रियो। न गच्छत्यंहसो भोत्या नान्यैर्गमयति त्रिधा ॥५२॥ स्वदारसंतोषी-स्वदारेषु निजधर्मपत्न्यां संतुष्यति मैथुनसंज्ञा प्रतिचिकीर्षया तान् भजतीत्येवं व्रतः स्वदारेषु सन्तोषोऽस्यास्तीति वा। अन्यस्त्री-परदाराः परिगृहीता अपरिगृहीताश्च । तत्र परिगृहीताः स-स्वामिकाः, अपरिगृहीता स्वैरिणी प्रोषितभर्तृका कुलाङ्गना वाऽनाथा। कन्या तु भाविभर्तृकत्वात्पित्रादि- ६ परतन्त्रत्वाद्वा सनात्यन्यस्त्रोतो न विशिष्यते । प्रकटस्त्री-वेश्या । गच्छति-भजति । अहंसो भीत्यापापाद्भिया न राजादिभयेन । अन्यैः-परदारादि लम्पटैः कर्तृभिः । त्रिधा-मनोवाक्कायैः कृतकारिताम्यामनुमत्यापि वा। उक्तं च 'विषवल्लीमिव हित्वा पररामां सर्वथा त्रिधा दूरम् । सन्तोषः कर्तव्यः स्वकलत्रेणैव बुद्धिमता ॥ नासक्त्या सेवन्ते भार्यां स्वामपि मनोभवाकुलिताः । वह्निशिखात्यासक्त्या शीतातैः सेविता दहति ।।' [ तदेतद् ब्रह्माणुव्रतं निरतिचारमद्यामिषक्षौद्रपञ्चौदुम्बरविरतिलक्षणाष्टमूलगुणान् प्रतिपन्नवतो विशुद्धसम्यग्दृशः श्रावकस्योपदिश्यते । यस्तु स्वदारवत् साधारण स्त्रियोऽपि व्रतयितुमशक्तः परदारानेव वर्जयति सोऽपि १५ ब्रह्माणुव्रतीष्यते । द्विविधं हि तवतं स्वदारसन्तोषः परदारवर्जनं चेति । एतच्चान्यस्त्रीप्रकटस्त्रियाविति स्त्रीद्वयसेवाप्रतिषेधोपदेशाल्लभ्यते । तदक्त अब स्वदारसन्तोषीका स्वरूप कहते हैं जो गृहस्थ पापके भयसे परस्त्री और वेश्याको मन, वचन, काय और कृत कारित अनुमोदनासे न तो स्वयं सेवन करता है और न दूसरे पुरुषोंसे सेवन कराता है वह स्वदारसन्तोषी है ॥५२॥ विशेषार्थ-परस्त्री दो प्रकार की होती है परिगृहीता और अपरिगृहीता। जिसका कोई स्वामी होता है वह परिगृहीता है और जो स्वच्छन्द है, जिसका पति परदेशमें है या अनाथ कुलीन स्त्री है वह अपरिगृहीता है। कन्याका स्वामी भविष्यमें उसका पति होनेवाला है और वर्तमानमें वह पिताके अधीन होनेसे सनाथ है अतः वह भी अन्यस्त्रीमें आती है। प्रकटस्त्री वेश्याको कहते हैं । इन दोनों प्रकारकी स्त्रियोंको जो पापके भयसे, न कि राजा या समाजके भयसे मन, वचन, काय और कृत कारित अनुमोदनासे न तो स्वयं भोगता है और न दूसरोंसे ऐसा कराता है वह स्वदारसन्तोषी है । यह ध्यानमें रखना चाहिए यह ब्रह्माणुव्रत निरतिचार मद्य मांस मधु और पाँच उदुम्बर फलोंसे विरतिरूप आठ मूल गुणोंके पालक विशुद्ध सम्यग्दृष्टी द्वितीय प्रतिमाधारी श्रावकके बतलाया है। द्वितीय प्रतिमाधारी श्रावकके व्रत निरतिचार होते हैं। जो व्रत प्रतिमा धारण न करके साधारण रूपसे अणव्रत पालते हैं उनके अणुव्रतों और व्रत प्रतिमाधारीके अणुव्रतोंके लक्षणमें अन्तर होता है। रत्नकरण्ड श्रावकाचार, पुरुषार्थ सिद्धथुपाय और सोमदेव उपासकाचारमें जो अणुव्रतके लक्षण कहे हैं वे व्रतप्रतिमाको लक्ष्यमें रखकर नहीं कहे गये हैं। वे तो साधारण अणुव्रतों के लक्षण हैं जो कभी अष्ट मूलगुणों में गिने जाते थे । तत्त्वार्थ सूत्र में भी जो अतिचार गिनाये हैं वे उन्हींको लक्ष्य में रखकर गिनाये हैं। अन्यथा वे अतीचार अनाचार जैसे लगते हैं। पं. आशाधरजी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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