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________________ १९० धर्मामृत (सागार) 'कटवाम्लोष्णविदाहितीक्ष्णलवणक्रोधोपवासातपस्त्रीसम्पर्कतिलातसीददिमुराचुकारनालादिभिः । भुक्तैर्जीयति भोजने शरदि च ग्रीष्मे सति प्राणिनां, मध्याह्न च तदर्धरात्रसमये पित्तप्रकोपो भवेत् ॥' [ अक्षमा-ज्वरोऽपि सुखमस्तीति भावः । तदुक्तमार्षे-- 'स्त्रीभोगो न सुखं चेतः सम्मोहाद् गात्रसादनात् । तृष्णानुबन्धात्संतापरूपत्वाच्च यथा ज्वरः॥' तथा 'क्षारमम्बु यथा पीत्वा तृष्यत्यतितरां नरः । तथा विषयसंभोगैः परं संतर्षमृच्छति ॥' [ महापु. ११।१६५, १९६ ] अपि च 'विषवद्विषयाः पंसामापाते मधरागमाः । अन्ते विपत्तिफलदास्तत्सतामिह को ग्रहः ॥ देह द्रविणसंस्कारसमुपार्जनवृत्तयः । जितकामे वृथा सस्तित्कामः सर्वदोषभाक् ॥ [ सो. उपा. ४१०, ४१५ ] ॥५३॥ अथ परदाररतौ सुखाभावमुपपादयति समरसरसरङ्गोद्गममृते च काचित् क्रिया न निवृत्तये । स कुतः स्यादनवस्थितचित्ततया गच्छतः परकलत्रम् ॥५४॥ विशेषार्थ-स्त्री सम्भोग और ज्वर दोनों समान हैं। स्त्री सम्भोगसे पित्त कुपित हो जाता है वह सन्ताप पैदा करता है और ज्वर तो सन्तापकारी होता ही है उसमें समस्त शरीर तपता है । हित अहितका विवेक न रहनेको मोह कहते हैं । कामीको जब काम सताता है तो उसे हित अहितकी समझ नहीं रहती । ज्वरमें भी ऐसी ही दशा होती है। सम्भोग भी शरीरकी सहनशीलताको नष्ट करता है और ज्वर भी। स्त्रीसम्भोगसे तृष्णा बढ़ती है और ज्वरसे भी तृष्णा अर्थात् प्यास बढ़ती है। आयुर्वेदमें कहा है कि स्त्रीसम्भोगसे पित्त प्रकुपित हो जाता है जब दोनों ही समान हैं तो सम्भोगकी तरह ज्वरको भी अच्छा मानो। यदि ज्वरमें सुख नहीं है तो सम्भोगमें भी सुख मानना अज्ञान है । स्वामी जिनसेनाचार्यने भी ऐसा ही कहा है-जैसे चित्तको मोहित (मूर्छित) करनेसे, शरीरको शिथिल बनानेसे, तृष्णा (प्यास) को बढ़ानेसे और सन्तापकारक होनेसे ज्वर सुखरूप नहीं है वैसे ही स्त्रीसम्भोग भी सुखरूप नहीं है । तथा, जैसे खारे जलको पीनेसे मनुष्यकी प्यास बढ़ती है वैसे ही विषयसम्भोगसे परमतृष्णा सताती है ।' सोमदेव सूरिने कहा है-विषके समान विषय प्रारम्भमें मीठे लगते हैं किन्तु अन्तमें विपत्तिमें डालते हैं। अतः विषयोंमें सज्जनोंका आग्रह कैसा ! जिसने कामको जीत लिया उसका शरीर संस्कार, धनोपार्जन आदि व्यर्थ है-क्योंकि इन सबकी जड़ काम है' ॥५३॥ परस्त्री गमनमें सुखका अभाव बतलाते हैं समरसरूप रसरंगकी उत्पत्तिके विना आलिंगन आदि कोई भी क्रिया सुखके लिए नहीं होती। चित्तके आकुल होनेसे परस्त्रीके साथ विषय सेवन करनेवालेको समरस रूप रसरंगकी उत्पत्ति कैसे हो सकती है ॥५४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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