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________________ ३ १२ धर्मामृत ( सागार) 'चोरप्रयोग-चोराहतग्रहावधिकहोनमानतुलम् । प्रतिरूपकव्यवहृति विरुद्धराज्येऽप्यतिक्रमं जह्यात् ॥५०॥ चोरप्रयोगं-चोरयतः स्वयमन्येन वा 'चोरय त्वं' इति चोरणक्रियायां प्रेरणं, प्रेरितस्य वा साधु करोषोत्यनुमननं, कुशिका-कतरिका-घर्घरिकादिचोरोपकरणानां वा समर्पणं विक्रयणं वा । अत्र यद्यपि 'चौर्य न करोमि न कारयामि' इत्येवं प्रतिपन्नव्रतस्य चौरप्रयोगो व्रतभङ्ग एव, तथापि किमधुना यूयं निा६ पारास्तिष्ठथ यदि वो भक्तादिकं नास्ति तदाहं तद्ददामि, भवदानीतमोष्यस्य वा यदि विक्रेता नास्ति तदाहं विक्रेष्ये इत्येवंविधवचनैश्चौरान व्यापारयतः स्वकल्पनया तव्यापारणं परिहरतो व्रतसापेक्ष्यस्यासावतीचारः ॥१॥ चौराहतग्रहं-अप्रेरितेनाननुमतेन च चौरेणानीतस्य कनकवस्त्रादेरादानं मूल्येन मुद्रिकया वा। चोरानीतं च काणक्रयेण मुद्रिकया वा प्रच्छन्नं गृह णश्चोरो भवति । ततश्चौर्यकरणाद् व्रतभङ्गो, वाणिज्यमेव मया क्रियते न चौरिकेत्यध्यवसायेन व्रतसापेक्षत्वाच्चाभङ्ग इति भङ्गाभङ्गरूपातिचारः ॥२॥ अधिकहीनमानतुलं-मानं प्रस्थादि हस्तादि च। मानं च तुला च मानतुलम् । अधिकं च हीनं अधिकहीनम् । तच्च तन्मानतुलं च अधिकमानं हीनमानं, अधिकतुला हीनतुला चेत्यर्थः । तत्र न्यूनेन मानादिनाऽन्यस्मै ददात्यधिकेनात्मनो गृह्णातीत्येवमादिकूटप्रयोगो हीनाधिकमानोन्मानमित्यर्थः ॥३॥ प्रतिरूपकव्यवहृति प्रतिरूपकं सदशं ब्रीहीणां पलंजि, घृतस्य वसा, हिंगोः खदिरादि वेष्टस्तैलस्य मूत्रं, जात्यसुवर्णरूप्ययोर्युक्त१५ सुवर्णरूप्ये इत्यादि प्रतिरूपकेण व्यवहृतिर्व्यवहारो ब्रो ह्यादिषु पलंज्यादि प्रक्षिप्य तद्विक्रयणम् । एतच्च द्वयं आगे अचौर्याणुव्रत के अतिचारोंको छोड़नेके लिये कहते हैं अचौर्याणुव्रती चोर प्रयोग, चोराहत ग्रह, अधिकहीनमानतुला, प्रतिरूपकव्यवहृति और विरुद्ध राज्यातिक्रम नामक पाँच अतिचारोंको छोड़ दें ॥५०॥ विशेषार्थ-पहला अतिचार है चोरप्रयोग-चोरी करनेवालेको स्वयं या दूसरेके द्वारा 'तुम चोरी करो' इस प्रकार चोरी करनेकी प्रेरणा करना चोर प्रयोग है। अथवा जिसे प्रेरणा नहीं की है उस चोरकी 'तुम अच्छा करते हो' इस प्रकार अनुमोदना करना भी चोर प्रयोग है। अथवा चोरोंको चोरी करनेके औजार कैंची, विसौली आदि देना या उनको बेचना भी चोर प्रयोग है। यद्यपि जिसने 'मैं न चोरी करूँगा और न कराऊँगा' इस प्रकारका व्रत लिया है उसके लिये चोर प्रयोग व्रतभंग रूप ही है । तथापि आजकल तुम खाली बेकार क्यों बैठे हो ? यदि तुम्हारे पास खानेको नहीं है तो मैं देता हूँ। यदि तुम्हारे चोरीके मालका कोई खरीदार नहीं है तो मैं बेचूंगा, इस प्रकारके वचनोंसे चोरोंको चोरीके लिए प्रेरणा करते हुए भी वह अपने मन में ऐसा सोचता है कि मैं चोरी नहीं करता हूँ। इस प्रकार व्रतकी अपेक्षा रखनेसे यह अतीचार है। यह प. आशाधरजीका कथन है। हमारे अभिप्रायसे यदि अचौर्याणुव्रती चोरी न करनेके साथ चोरी न करानेका भी नियम लेता है तो उक्त प्रकारके चौर प्रयोगसे उसका व्रत भंग हो जाता है। यह अतिचार तभी सम्भव है जब उसने स्वयं चोरी न करनेका नियम लिया हो। सभी श्रावकाचारोंमें अचौर्याणुव्रतका स्वरूप ऐसा ही देखा जाता है कि वह विना दी हुई वस्तु न स्वयं लेता है और न उठाकर दूसरेको देता है । अस्तु । दूसरा अतिचार है चोराहृत ग्रह-जिस चोरको न चोरी करनेकी प्रेरणा की थी और न अनुमोदना, ऐसे चोरके द्वारा लाये गये सुवर्ण वस्त्रादिको मूल्यसे लेना। १. 'स्तेनप्रयोगतदाहृतादानविरुद्धराज्यातिक्रमहीनाधिकमानोन्मानप्रतिरूपकव्यवहारा:।' -त. सू. ७।२७ । रत्न, श्रा.५८ । पुरुषा. १८५ श्लो. । सो. उपा. ३७० श्लो. । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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