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________________ ६ त्रयोदश अध्याय (चतुर्थ अध्याय ) १८३ ___ संक्लेशाभिनिवेशेन-रागाद्यावेशेन । एतेनेदमुक्तं भवति प्रमत्तयोगे सत्येवादत्तस्यादाने दाने वा चौर्य स्यान्नान्यथा । तदुक्तम् 'हिंसायास्स्तेयस्य च नाव्याप्तिः सुधटे एव हि स यस्मात् । ग्रहणे प्रमत्तयोगो द्रव्यस्य स्वीकृतस्यान्यैः ।। नातिव्याप्तिश्च तयोः प्रमत्तयोगैककारणविरोधात् । अपि कर्मानुग्रहणे नीरागाणामविद्यमानत्वात् ॥' [ पुरुषा. १०४-१०५ ] ॥४७॥ अथ निधानादिधनं राजकीयत्वसमर्थनेन व्रतयन्नाह नास्वामिकमिति ग्राह्य निधानादि धनं यतः। धनस्यास्वामिकस्येह दायादो मेदिनीपतिः ॥४८॥ स्पष्टम् । उक्तं च 'रिक्थं निधिनिधानोत्थं न राज्ञोऽन्यस्य युज्यते । यत्स्वस्यास्वामिकस्येह दायादो मेदिनीपतिः ।।' [ सो. उपा. ३६७ 1 ॥४८॥ अथ सांशयिके स्वधनेऽपि नियमं कारयति स्वमपि स्वं मम स्याद्वा न वेति द्वापरास्पदम् । यदा तदाऽऽदीयमानं व्रतभङ्गाय जायते ॥४९॥ द्वापरास्पदं-सन्देहपदम् । तदा दीयमानं-तस्मिन् काले वितीर्यमाणम् । तदेत्यत्राकारप्रश्लेषाद् गृह्यमाणं च । उक्तं च 'आत्मार्जितमपि द्रव्यं द्वापरादन्यथा भवेत् । निजान्वयादतोऽन्यस्य व्रती स्वं परिवर्जयेत् ॥' [ सो. उपा. ३६८ ] ॥४९॥ विशेषार्थ-इसका यह आशय है कि यदि चोरीके अभिप्रायसे विना दी हुई वस्तुको लिया या दिया जाता है तभी चोरी कहलाती है। कहा है-हिंसा और चोरीमें अव्याप्ति नहीं है किन्तु दोनों में व्याप्ति है; क्योंकि पराये द्रव्यको ग्रहण करने पर प्रमादका योग अवश्य होता है। दोनोंमें अतिव्याप्ति भी नहीं है क्योंकि वीतरागी पुरुष जो विना दिये कर्मोको ग्रहण करते हैं वह चोरी नहीं है क्योंकि उनके प्रमादका योग नहीं है ॥४७॥ __जमीन आदि में गड़ा धन राजाका होता है अतः उसको भी न लेनेका नियम करते हैं नदी, गुफा या किसी गढ़े आदिमें रखे धनको, इसका कोई स्वामी नहीं है ऐसा मानकर अचौर्याणुव्रती ग्रहण न करे। क्योंकि लोकमें जिस धनका कोई स्वामी नहीं है उसका साधारण स्वामी राजा होता है ॥४८॥ अपने धनमें यदि सन्देह हो कि यह मेरा है या दूसरेका, तो उसे भी न लेनेका नियम कराते हैं जब अपना भी धन, यह मेरा है या नहीं, इस प्रकारके संशयका स्थान होता है उस अवस्था में उसे किसीको देना या स्वयं लेना अचौर्यव्रतको भंग करता है ॥४९।। १८ १. सुघटमेव सा यस्मात्-पुरु. । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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