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________________ १८२ धर्मामृत ( सागार) परस्वं-परस्य धनं सामर्थ्याददत्तं तस्यैव परस्वामिकत्वोपपत्तेः। दत्तस्य च स्बस्वामिकत्वसंभवात् । तदुक्तम् 'निहितं वा पतितं वा सुविस्मृतं वा परस्वमविसृष्टम् । न हरति यन्न च दत्ते तदकृशचौर्यादुपारमणम् ॥ [ रत्न. श्रा. ५७ ] अपि च 'असमर्था ये कर्तुं निपानतोयादिहरणविनिवृत्तिम् । तैरपि समस्तमपरं नित्यमदत्तं परित्याज्यम् ॥' [ पुरुषार्थ. १०६ ] ॥४६॥ अथ प्रमत्तयोगात्परकीयतृणस्याप्यदत्तस्यादाने दाने वाचौर्यव्रतभङ्ग दर्शयति - 'संक्लेशाभिनिवेशेन तृणमप्यन्यभत कम् । अवत्तमाददानो वा दवानस्तंस्करो ध्रुवम् ॥४७॥ प्रमादके योगसे विना दी हुई परिग्रहके ग्रहणको चोरी कहा है। तत्त्वार्थ सूत्रमें विना दी हुई वस्तुके ग्रहणको चोरी कहा है। किन्तु इसमें पूर्व सूत्रसे 'प्रमादके योगसे' पदकी अनुवृत्ति होती है। जिसका अर्थ होता है चोरीके अभिप्रायसे विना दी हुई वस्तुका ग्रहण चोरी है और और उसका त्याग अचौर्य, व्रती करता है। किन्तु गृहस्थ तो अचौर्यवती नहीं होता अचौर्याणुव्रती होता है । मुनिगण सर्वसाधारणके भोगनेके लिए मुक्त जल और मिट्टीके सिवा विना दी हुई कोई भी वस्तु ग्रहण नहीं करते। किन्तु गृहस्थके लिये इस प्रकारका त्याग सम्भव नहीं है । इसलिए गृहस्थ ऐसी विना दी हुई परायी वस्तुको ग्रहण नहीं करता, जिसके ग्रहण करने पर वह चोर कहलाये और राजदण्डका भागी हो। आचार्य सोमदेवने भी सर्वभोग्य जल तृण आदिके अतिरिक्त विना दिये हुए पराये द्रव्यके ग्रहणको चोरी कहा है। किन्तु चूंकि गृहस्थ इस प्रकारका त्याग नहीं कर सकता, इसलिए उन्होंने उसे स्पष्ट करते हुए कहा है कि यदि कोई ऐसे कुटुम्बी मर जावें जिनका उत्तराधिकार हमें प्राप्त होता है तो उनका धन विना दिये भी लिया जा सकता है। किन्तु यदि वह जीवित हों तो उनका धन उनकी आज्ञासे ही लिया जा सकता है। उनकी जीवित अवस्था में ही उनसे विना पछे उनका धन लेनेसे अचौर्याणुव्रतमें क्षति पहुँचती है। अपना धन हो या पराया हो जिसके लेनेमें चोरीका भाव है वह चोरी है। इसी तरह जमीन वगैरहमें गढ़ा धन राजाका होता है। क्योंकि जिस धनका कोई स्वामी नहीं उसका स्वामी राजा होता है । अपने द्वारा उपाजित द्रव्यमें भी यदि संशय हो जाये कि यह मेरा है या दूसरेका, तो वह द्रव्य ग्रहण करनेके अयोग्य है। अतः व्रतीको अपने कुटुम्बके सिवाय दूसरोंका धन नहीं लेना चाहिए। इस तरह आचार्य सोमदेवने अचौर्याणुव्रतको अच्छा स्पष्ट किया है और उन्हींका अनुसरण आशाधरजीने किया है ॥४६॥ ___ प्रमाद युक्त भावसे विना दिये पराये तृणको भी ग्रहण करने या दूसरोंको देनेपर अचौर्यव्रत भंग होता है, यह बताते हैं राग आदिके आवेशसे जिसका स्वामी दूसरा व्यक्ति है और उसके दिये विना एक तृणको भी स्वयं ग्रहण करनेवाला या दूसरेको देनेवाला निश्चयसे चोर होता है ॥४७|| १. 'संक्लेशाभिनिवेशेन प्रवृत्तिर्यत्र जायते । तत्सर्वं रायि विज्ञेयं स्तेयं स्वान्यजनाश्रये ॥सो. उपा. ३६६ श्लो.] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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