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________________ त्रयोदश अध्याय ( चतुर्थ अध्याय ) 'मन्त्रभेदः परीवादः पैशुन्यं कूटलेखनम् । मुधा साक्षिपदोक्तिश्च सत्यस्यैते विघातकाः ।' [ सो. उपा. ३८१ ] इति यशस्तिलकेऽतिचारान्तरवचनं 'तत्परेऽप्यूह्यास्तदत्यया' इत्यनेन संगृहीतं प्रतिपत्तव्यम् ॥ ४५ ॥ अथाचार्याणुव्रतलक्षणार्थमाह चौरव्यपदेशकरस्थूलस्तेयव्रतो मृतस्वधनात् । परमुदकादेश्चाखिल भोग्यान्न हरेद्ददीत न परस्वम् ॥४६ || चौरेत्यादि । चौरोऽयमुपलक्षणाद्धर्मघात कोऽयं वधकारोऽयमित्यादि व्यपदेशं नाम करोतीति चौरादिव्यपदेशकरम् । स्थूलस्तेयं --- बादरचौर्यं खात्रखननादिकं तत्पूर्वकमदत्तादानं वा, तत्र व्रतं नियमः, तस्माद्वा व्रत निवृत्तिर्यस्य स तथोक्तोऽचौर्याणुव्रतीत्यर्थः । उक्तं च 'दौर्भाग्यं प्रेष्यतां दास्यमङ्गच्छेदं दरिद्रताम् । अदत्तात्तफलं ज्ञात्वा स्थूलस्तेयं विवर्जयेत् ॥' [ मृतस्वधनात्परं - जीवतां ज्ञातीनामित्यर्थः । उक्तं च'अदत्तस्य परस्वस्य ग्रहणं स्तेयमुच्यते । सर्वभोग्यात्तदन्यत्र भावात्तोयतृणादितः ॥ ज्ञातीनामत्यये वित्तमदत्तमपि संमतम् । जीवतां तु निदेशेन व्रतक्षतिरतोऽन्यथा ॥' [ सो. उपा. ३६४-३६५ ] ] ऐसा कहना । इसे अन्य ग्रन्थकारोंने न्यासापहार नाम दिया है । ५. मन्त्रभेद - अंगविकार तथा भ्रुकुटियोंके संचालनसे दूसरेके अभिप्रायको जानकर ईर्ष्या आदि वश प्रकट करना । अथवा विश्वासी मित्रों आदि के द्वारा अपने साथ विचार किये गये किसी शर्मनाक विचारका प्रकट कर देना । ये पाँच सत्याणुव्रतके अतीचार हैं । तत्त्वार्थ सूत्र में भी ये ही पाँच अतिचार बतलाये हैं । किन्तु रत्नकरण्ड श्रावकाचार में रहोऽभ्याख्या, कूटलेखकरण और न्यासा - पहार के साथ परिवाद और पैशुन्यको गिनाया है । सोमदेवने मंत्रभेद, परीवाद, पैशुन्य और कूटलेख के साथ झूठी गवाहीको भी अलग से अतीचार माना है । इन्होंने न्यासापहारको नहीं कहा । किन्तु 'अन्य भी अतिचार विचार लेना' इस कथन के द्वारा उनका ग्रहण किया है ||४५|| Jain Education International १८१ अचौर्याणुव्रतका लक्षण कहते हैं चोर नामको देनेवाली स्थूल चोरीका व्रत लेनेवाला अचौर्याणुव्रती मृत्युको प्राप्त हुए तथा पुत्रादिक रहित अपने कुटुम्बीके धन तथा राजाकी ओरसे सबके भोगने योग्य जल घास आदिके सिवाय अन्य पराये द्रव्यको न तो स्वयं लेवे और न दूसरोंको देवे ||४६ || १. सर्वार्थ. ७।२०। २. अवितीर्णस्य ग्रहणं परिग्रहस्य प्रमत्तयोगाद्यत् । तत्प्रत्येयं स्तेयं सैव च हिंसा वधस्य हेतुत्वात् ॥ - पुरुषा. १०२ श्लो. । विशेषार्थ - स्वामी समन्तभद्रने पराया द्रव्य कहीं रखा हुआ हो, या गिरा हुआ हो या भूला हुआ हो, उसे जो न दूसरेको देता है और न स्वयं लेता है उसे स्थूल चोरीका त्यागी कहा है | पूज्यपाद स्वामीने भी जिससे दूसरेको पीड़ा पहुँचे और राजा दण्ड दे ऐसे अवश्य छोड़े हुए, विना दिये हुए पराये द्रव्यको नहीं लेना अचौर्याणुव्रत कहा है । अमृतचन्द्रजीने For Private & Personal Use Only ६ ९ १२ १५ www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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