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त्रयोदश अध्याय (चतुर्थ अध्याय )
परव्यंसनेन (?) परधनग्रहणरूपत्वात भंग एव । केवलं खात्रखननादिकमेव चौयं प्रसिद्ध मया तु वणिक्कलैव कृतेति भावनया व्रतरक्षणोद्यतत्वादतिचारावेवेति ॥४॥ विरुद्धराज्येऽप्यतिक्रम-विरुद्धं विनष्टं विगृहीतं वा राज्यं राज्ञः पृथ्वीपालनोचितं कर्म विरुद्धराज्यं छत्रभङ्गः पराभियोगो वेत्यर्थः । तत्रातिक्रम उचितन्याया- ३ दन्येन प्रकारेणार्थस्य दानग्रहणम् । विरुद्धराज्येऽल्पमूल्यलम्यानि महार्धाणि द्रव्याणीति प्रयत्नतः । अथवा विरुद्धयोरर्थाद्राज्ञो राज्यं नियमिता भूमिः कटकं वा विरुद्धराज्यम् । तत्र षष्टिसप्तम्योरथ प्रति भेदाभावात्तस्यातिक्रमो व्यवस्थालङ्घनम् । व्यवस्था च परस्परविरुद्धराजकृतव तल्लङ्घनं चान्यतरराज्यनिवासिन इतरराज्ये प्रवेशः, इतरराज्यनिवासिनो वाऽन्यतरराज्ये प्रवेशः। विरुद्धराज्यातिक्रमस्य च यद्यपि स्वस्वामिनाननुज्ञातस्यादत्तादानलक्षणयोगेन तत्कारिणां च चौर्यदण्डयोगेन चौर्यरूपत्वाद् व्रतभङ्ग एव । तथापि विरुद्धराज्यातिक्रम कुर्वता मया वाणिज्यमेव कृतं न चौर्यमिति भावनया वतसापेक्षत्वाल्लोके च चोरोऽयमिति व्यपदेशाभावादतिचार एव स्यात् ॥५॥ अथवा चौरप्रयोगादयः पञ्चाप्यते व्यक्तचौर्यरूपा एव । केवलं सहकारादिना अतिक्रमादिना वा प्रकारेण क्रियमाणास्तेऽतिचारतया व्यपदिश्यन्ते । न चैते राज्ञां तत्सेवकादीनां वा न संभवन्तीति वाच्यं, यतः प्रथम-द्वितीययोः स्पष्ट एव सम्भवः । तृतीयश्चतुर्थश्च यदा राजा भाण्डागारे १२ हीनाधिकमानोन्मानं द्रव्याणां विनिमयं च कारयति तदा राज्ञोऽप्यतीचारौ स्तः । विरुद्धराज्यातिक्रमस्तु यदा सामन्तादिः कश्चित्स्वामिनो वृत्तिमुपजीवति तद्विरुद्धस्य च सहायो भवति तदास्यातिचारः स्यात् । जह्यात् -
जो चोरीका माल छिपकर खरीदता है वह चोर होता है और चोरी करनेसे व्रतका भंग होता है। किन्तु ऐसा करनेवाला समझता है कि मैं तो व्यापार करता हूँ, चोरी नहीं करता। इस प्रकारके संकल्पसे व्रतकी अपेक्षा रखनेसे व्रत भंग नहीं होता। किन्तु एक देशका भंग और एक देशका अभंग होनेसे अतीचार होता है। तीसरा अतिचार है अधिकहीनमानतुला, मापनेके गज वाट वगैरहको मान कहते हैं और तराजूको उन्मान कहते हैं। दो तरहके वाट तराजू रखना एक हीन और एक अधिक। हीन या कमसे दूसरोंको देता है। अधिकसे स्वयं लेता है । चौथा अतिचार है प्रतिरूपक व्यवहृति-प्रतिरूपक कहते हैं समान को। जैसे घीका प्रतिरूपक चर्बी, तेलका प्रतिरूपक मूत्र। असली सोने चाँदीका प्रतिरूपक नकली सोना चाँदी। घीमें चर्बी मिलाकर बेचना आदि प्रतिरूपक व्यवहार है। वस्तुतः इस तरहका काम पराये धनको लेनेवाला होनेसे चोरी ही है। किन्तु वह समझता है कि मकानमें सेंध लगाना वगैरह ही चोरी प्रसिद्ध है। मैं तो व्यापारकी कला मात्र करता है। इस भावनासे व्रतकी रक्षाका भाव होनेसे इसे अतिचार कहा है। पाँचवा अतिचार है विरुद्ध राज्यातिक्रम-राजाके प्रजापालनके योग्य कर्मको राज्य कहते हैं। वह राज्य नष्ट हो जाये या किसीके द्वारा अपने अधिकारमें कर लिया जाये तो उसे विरुद्धराज्य कहते हैं। उसमें अतिक्रमका मतलब है उचित न्यायसे भिन्न ही प्रकारसे लेना देना। विरुद्ध राज्यमें सस्ती वस्तुओंको ऊँचे मूल्यपर बेचनेका प्रयत्न किया जाता है। अथवा परस्परमें विरोधी दो राजाओंका राज्य अर्थात् उनको नियमित भूमि सेना वगैरह विरुद्ध राज्य है। उसका अतिक्रम अर्थात् व्यवस्थाका उल्लंघन । अर्थात् एक राज्यके निवासीका दूसरे राज्य में प्रवेश करना। जैसे पाकिस्तान और भारतमें होता है। यद्यपि अपने राजाकी आज्ञाके बिना ऐसा करना बिना दी हुई वस्तुका ग्रहणरूप होनेसे तथा ऐसा करनेवालोंके चोरीके दण्डके योग्य होनेसे चोरी रूप ही है, तथापि ऐसा करनेवाले व्यापारीकी भावना यही रहती है कि मैं व्यापार करता हूँ चोरी नहीं करता। लोकमें भी उसे कोई चोर नहीं कहता। अतः व्रत सापेक्ष होनेसे अतिचार है। वास्तवमें तो ये पाँचों ही स्पष्ट रूपसे चोरीमें आते हैं। कोई चोर
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