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________________ १७१ त्रयोदश अध्याय ( चतुर्थ अध्याय ) सावधे-'क्षेत्रं कृष' इत्यादि । उक्तं च 'छेदनभेदनमारणकर्षणवाणिज्यचौर्यवचनादि । तत्सावा यस्मात्प्राणिवधाद्याः प्रवर्तन्ते ॥[ पुरुषार्थ. ९० ] अन्यत्-सदपलपनादि । तथाहि-नास्त्यात्मेत्यादि सदपलपनम् । उक्तं च 'स्वक्षेत्रकालभावैः सदपि च यस्मिन्निषिध्यते वस्तु । तत्प्रथममसत्यं स्यान्नास्ति यथा देवदत्तोऽत्र ।।' [ पुरुषार्थ. ९२] सर्वगत आत्मा, श्यामाकतण्डुलमात्रो वेत्यादिकमसद्भावनम् । उक्तं च 'असदपि हि वस्तुरूपं यत्र परक्षेत्रकालभावैस्तैः । उद्भाव्यते द्वितीयं तदनृतमस्मिन् यथाऽस्ति घटः ॥' [ पुरुषा. ९३ ] गामश्वमभिवदतो विपरीतम् । उक्तं च 'वस्तु सदपि स्वरूपात्पररूपेणाभिधीयते यस्मिन् । अनुतमिदं तु तृतीयं विज्ञेयं गौरिति यथाश्वः ॥' [ पुरुषा. ९४ ] काणं काणमभिदधानस्याप्रियम् । अरे बान्धकिनेय इत्यादि गहितम् । साक्रोशमित्यन्यत् । हिंसेति प्रमादयोगाविशेषात् । यत्र तु प्रमत्तयोगो नास्ति तद्धियानुष्ठानाद्यनुवदनं नासत्यम् । 'हेतो प्रमत्तयोगे निर्दिष्टे सकलवितथवचनानाम् । हेयानुष्ठानादेरनुवदनं भवति नासत्यम् ।' [ पुरुषार्थ. १०० ] उज्झन्तु । उक्तं च 'भोगोपभोगसाधनमात्रं सावद्यमक्षमा मोक्तुम् । ये तेऽपि शेषमनृतं समस्तमपि नित्यमेव मुञ्चन्तु ॥' [ पुरुषार्थ. १०१ ] ॥४४॥ सावध वचनको छोड़ने में असमर्थ हैं वे भी भोग-उपभोगमें साधन मात्र सावद्य वचनको छोड़कर अन्य सब प्रकारके झूठ वचनोंको हिंसा मानकर सदा त्याग दें ॥४४॥ ___ विशेषार्थ-ऊपर श्लोकमें जो 'वा' शब्द है उसका यह अभिप्राय है कि समस्त सावध वचनोंको छोड़ने में जो असमर्थ हैं वे केवल अमुक प्रकारके सावध वचन ही बोलें । शेष सबका त्याग कर दें। गृहस्थके लिए आवश्यक भोजन, स्त्री आदि जो भोग-उपभोग हैं उनमें जिन सावध वचनोंकी आवश्यकता होती है, जैसे खेत जोतो, पानी दो, धान काटो आदि, उन्हें वह बोल सकता है। किन्तु इनके सिवाय जो पाँच प्रकारके असत्य वचन हैं, जिनका उसके भोग-उपभोगसे कोई सम्बन्ध नहीं है वे उसे नहीं बोलने चाहिए, क्योंकि सभी असत्य वचन हिंसाकी पर्याय होनेसे हिंसारूप ही हैं क्योंकि उनमें प्रमादका योग रहता है । जहाँ प्रमादका योग नहीं है वहाँ असत्य बोलना असत्य नहीं है क्योंकि ऐसा असत्य कल्याणकी भावनासे ही बोला जाता है। जो पाँच प्रकारका असत्य कभी भी नहीं बोलना चाहिए, वह इस प्रकार है-१. सत्का अपलाप, जैसे आत्मा नहीं है, परलोक नहीं है इत्यादि । २. असत्का उद्भावन, जैसे आत्मा व्यापक है या चावलके बराबर है। ३. विपरीत बोलना, जैसे, गायको घोड़ा कहना। ४. अप्रिय वचन बोलना, जैसे काने आदमीको काना कहना । ५ साक्रोश वचन बोलना, जैसे अरे राँडके । इसे गर्हित भी कहते हैं । इस प्रकारके निरुपयोगी सावध वचन कभी नहीं बोलना चाहिए । सदा हित मित प्रिय वचन बोलना चाहिए॥४४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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