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________________ १७८ धमामृत ( सागार) -प्रतिपन्नम् ॥४१॥ असत्यं वय वासोऽन्धो रन्धयेत्यादि सत्यगम् । वाच्यं कालातिक्रमेण दानात्सत्यमसत्यगम् ॥४२॥ सत्यगं--असत्यमपि किञ्चित्सत्यमेवेत्यर्थः । कालातिक्रमेण दानात्-यथाऽर्धमासतमे दिवसे तवेयं देयमित्यास्थाय मासतमे संवत्सरतमे वा दिवसे ददातीति ।।४२।। यत्स्वस्य नास्ति तकल्ये दास्यामोत्यादिसंविदा। व्यवहारं विरुधानं नासत्यासत्यमालपेत ॥४३॥ संविदा-प्रतिज्ञया । उक्तं च 'तुरीयं वर्जयेन्नित्यं लोकयात्रा त्रये स्थिता। सा मिथ्यापि न गीमिथ्या या गुर्वादिप्रसादिनी ॥' [ सो. उपा. ३८४ ] ॥४३॥ अथ सावधव्यतिरिक्तानृतपञ्चकस्य नित्यं वर्जनीयत्वमाह मोक्तं भोगोपभोगाङ्गमात्रं सावद्यमक्षमा । ये ते ऽप्यन्यत्सदा सवं हिसेत्युज्झन्तु वाऽनृतम् ॥४४॥ की गयी है उसको उसी देश, उसी काल, उसी प्रमाण, उसी आकार में उपस्थित करना सत्यसत्य है। ऐसा वचन बोलना चाहिए ॥४१॥ विशेषार्थ-जैसे हमने किसीसे वादा किया कि हम आपको अमुक वस्तु अमुक स्थानपर, अमुक समयमें, अमुक परिमाणमें देवेंगे तो उस वस्तुको अपने वचनके अनुसार उसी स्थानपर, उसी समयमें, उसी परिमाणमें और उसी आकार-प्रकारमें प्रदान करना, ऐसा वचन सत्यसत्य कहा जाता है। ऐसे वचनसे प्रामाणिकता प्रकट होती है। लोकमें अपनी साख जमती है । लोकव्यवहार में विश्वास पैदा होता है ।।४।। हे जुलाहे, वस्त्र बुनो । हे रसोइये, भात पकाओ। इत्यादि वचन असत्य होनेपर भी किंचित् सत्य होनेसे असत्यसत्य हैं। कालका अतिक्रम करके देनेसे सत्य होते हुए भी असत्य होनेसे सत्यासत्य कहलाता है । ये वचन सत्याणुव्रती बोल सकता है ॥४२॥ विशेषार्थ-लोकव्यवहार में ऐसा बोला जाता है-वस्त्र बुनो, भात पकाओ। किन्तु न तो वस्त्र बुना जाता है और न भात पकाया जाता है। धागे बुने जाते हैं और चावल पकाये जाते है। अतः वस्त्रके योग्य धागामें वस्त्र शब्दका प्रयोग और चावलमें भात शब्दका प्रयोग असत्य है। किन्तु लोकमें ऐसा व्यवहार होनेसे सत्य है । अतः ऐसे वचनको असत्य सत्य कहते हैं । तथा किसीने कहा कि मैं पन्द्रहवें दिन आपकी यह वस्तु लौटा दूंगा। किन्तु पन्द्रहवें दिन न लौटाकर एक मास या एक वर्ष में लौटाता है। चूंकि उसने वस्तु लौटा दी इसलिए उसका वचन सत्य है और समयपर न लौटानेसे असत्य है अतः सत्यासत्य है। लोकव्यवहार में ऐसा चलन होनेसे इस तरह के वचन सत्याणुव्रती बोल सकता है ।।४२।। जो वस्तु अपनी नहीं है और अपने पास भी नहीं है उसके सम्बन्धमें इस प्रकारका वादा करना कि कल यह वस्तु दूंगा असत्यासत्य है। ऐसा वचन लोकव्यवहारमें बाधा डालनेवाला है । अतः उसे नहीं बोलना चाहिए ।।४।। आगे सावद्य वचनके सिवाय पाँच प्रकारके असत्य वचनोंको सदा छोड़ने योग्य बताते हैं यहाँ बहुत न कहकर इतना कहना ही पर्याप्त है कि जो भोग और उपभोगमें साधन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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