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________________ त्रयोदश अध्याय ( चतुर्थ अध्याय ) १७७ अथ लोकव्यवहाराविरोधेन वाक्प्रयोगं तद्विरोधेन च तदप्रयोगमुपदिशति लोकयात्रानुरोधित्वात्सत्यसत्यादिवाक्त्रयम् । ब्रूयादसत्यासत्यं तु तद्विरोधान्न जातुचित् ॥४०॥ स्पष्टम् ॥४०॥ अथ सत्यसत्यादीनि श्लोकत्रयेण लक्षयन्नाह यद्वस्तु यद्देशकाल-प्रमाकारं प्रतिश्रुतम् । तस्मिस्तथैव संवादि सत्यसत्यं वचो वदेत् ॥४१॥ परिभाषामें आता है। जिससे किसी प्राणीको पीड़ा पहुँचे वह सब वचन अप्रशस्त या असत् है चाहे वह विद्यमान अर्थको कहता हो चाहे अविद्यमान अर्थको कहता हो।' यह परिभाषा असत्की पूज्यपाद स्वामीने की है। अतः जो वस्तु जैसी देखी हो या सुनी हो उसको वैसा ही कहना, यह सत्यकी एकांगी परिभाषा है। जैन धर्म में मूल व्रत अहिंसा है। अतः जिस सत्यसे हिंसा होती हो वह सब असत्यकी कोटिमें आता है। वैसे तो सत्य बोलनेसे स्वार्थका घात होता है और स्वार्थका घात होनेसे व्यक्तिको कष्ट पहुँचता है। किन्तु ऐसे सत्य वचनको हिंसा नहीं कह सकते । यदि कहें तो फिर सत्य बोलना ही असम्भव हो जायेगा। अतः स्वार्थघाती सत्य असत्य नहीं है किन्तु प्राणघाती सत्य ही असत्यमें सम्मिलित है। ऐसा सत्य भी नहीं बोलना चाहिए। पं. आशाधरजीने जो कूटसाक्ष्य और न्यासापहारके त्यागीको सत्याणुव्रती कहा है और आगे सत्याणुव्रतके अतीचारोंमें इन दोनोंको गिनाया है उसमें आपत्ति आती है क्योंकि जिसको त्याग चका उसीके करनेसे तो व्रतभंगका प्रसंग आता है। अतः सत्याणुव्रतकी जो परम्परागत व्याख्या है वही समुचित प्रतीत होती है। पूज्यपाद स्वामीने तो स्नेह-मोह आदिके वशमें होकर ऐसा झूठ न बोलनेको सत्याणुव्रत कहा है जो किसी घर या गाँवको ही विनष्ट करने में कारण हो । व्याख्यामें स्थूल झूठका त्याग आ ही जाता है। स्थूल झूठके ही तो वे चार भेद हैं जिन्हें अमृतचन्द और अमितगतिने गिनाया है ॥३९॥ आगे लोकव्यवहार में विरोध पैदा न करनेवाले वचनोंको बोलनेका और लोकव्यवहारमें विरोध पैदा करनेवाले वचनोंको न बोलनेका उपदेश देते हैं सत्याणुव्रती लोकव्यवहारमें सहायक होनेसे आगे कहे जानेवाले सत्यसत्य आदि तीन प्रकारके वचनोंको बोले। किन्तु लोकव्यवहारके विरुद्ध होनेसे असत्यासत्यको कभी भी न बोले ॥४०॥ विशेषार्थ-वचनके चार प्रकार हैं-सत्यसत्य, सत्यअसत्य, असत्यसत्य और असत्यअसत्य । इनका लक्षण आगे कहेंगे। इनमें से प्रथम तीन वचन तो लोकव्यवहारके सहायक हैं। किन्तु असत्यासत्य लोकव्यवहारका घातक है अतः उसे कभी भी नहीं बोलना चाहिए ॥४०॥ आगे तीन इलोकोंसे सत्यसत्य आदिका लक्षण कहते हैंजो वस्तु जिस देश, जिस काल, जिस प्रमाण और जिस आकारको लेकर प्रतिज्ञात १. 'प्राणिपोडाकरं यत्तदप्रशस्तम विद्यमानार्थविषयं वाऽविद्यमानार्थविषयं वा । उक्तं च प्रागेवाहिंसापरिपाल. नार्थमितरवतमिति । तस्माद्धिसाकर्मवचोऽनृतमिति निश्चेयम् ।'-सर्वार्थसि. ७११४ । सा.-२३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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