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________________ १७६ धर्मामृत ( सागार) सत्यं-चौरे चोरोऽयमित्यादिरूपम् । स्वान्यापदे-स्वपर-[ विपत्यर्थ-] मित्यर्थः। त्यजन्यस्मिन्नुक्ते स्वपरयोर्बधबन्धादिकं राजादिभ्यो भवति तत्स्थूलासत्यम् । तादृक् सत्यं च स्वयमवदन् पश्चिा३ वादयन्नित्यर्थः । तदुक्तम् 'स्थूलमलीकं न वदति न परान् वादयति सत्यमपि विपदे । यत्तद्वदन्ति सन्तः स्थूलमृषावादवैरमणम् ॥' [ रत्न. श्रा. ५५ ] अपि च 'अत्युक्तिमन्यदोषोक्तिमसभ्योक्ति च वर्जयेत् । भाषेत वचनं नित्यमभिजातं हितं मितम् ।। तत्सत्यमपि नो वाच्यं यत्स्यात्परविपत्तये । जायन्ते येन वा स्वस्य व्यापदश्च दुरास्पदाः ॥' [ सो. उपा. ३७६-३७७ ] ॥३९॥ मैं इसका साक्षी हूँ, यह कूट साक्ष्य है। इसके द्वारा दूसरेके पापका समर्थन होता है अतः ये पहलेके तीन झुठोंसे भिन्न है। यह धर्मका विरोधी है अतः नहीं बोलना चाहिए। सुरक्षाके लिए जो वस्तु दूसरेके पास रख दी जाती है उसे न्यास कहते हैं। जैसे सोना वगैरह । उस धरोहरको अपने पास रखकर झूठ नहीं बोलना चाहिए कि मेरे पास नहीं रखी थी। यह तो विश्वासघात है | अधिक क्या कहा जाये, अज्ञान और संशयमें भी झूठ नहीं बोलना चाहिए, राग-द्वेषसे झूठ बोलनेकी तो बात ही क्या है। यह पं. आशाधरजीने सत्याणुव्रतका स्वरूप कहा है। दिगम्बर परम्पराके श्रावकाचारोंमें इस तरहका लक्षण, जिसमें कुछ असत्योंका नाम लिया गया हो, नहीं मिलता । सबने स्थूल असत्य या उसके भेदोंके त्यागको सत्याणुव्रत कहा है। यथा-अमृतचन्द्राचार्यने तत्त्वार्थसूत्रके अनुसार असत् कथनको झूठ कहा है और उसके चार भेद कहे हैं.-सत्का निषेध । यथा देवदत्तके घरमें होते हुए भी कहना कि वह नहीं है। असत्का विधान | जो नहीं है उसे 'है' कहना। तीसरा अन्यको अन्य कहना, जैसे बैलको घोड़ा बतलाना। चौथा, गर्हित, पाप सहित, और अप्रिय वचन बोलना। इन सबका त्याग सत्याणुव्रत है । सोमदेवाचार्यने किसी बातको बढ़ाकर कहना, दूसरेके दोषोंको कहना, असभ्य वचन बोलनेको असत्य कहा है और उनके त्यागको सत्याणुव्रत कहा है। अमितगतिने भी निन्दनीय और धार्मिकोंके द्वारा अनादरणीय वचनको तथा अनिष्ट वचन को असत्य कहा है। इन्होंने अमृतचन्द्रजीके द्वारा कहे गये असत्यके चार भेदोंको भी बताया है। वसुनन्दिने राग या द्वेषसे झूठ न बोलनेको तथा प्राणियोंका घात करनेवाला सत्य वचन भी न बोलनेको सत्याणुव्रत कहा है। ऐसा प्रतीत होता है कि तत्त्वार्थसूत्रके 'असत् कथनको असत्य कहते हैं इस लक्षणको आगेके ग्रन्थकारोंने विस्तृत या स्पष्ट करनेका प्रयत्न किया है। स्वामी समन्त भद्रने उसे स्थूल झूठके रूपमें लिया और जिस सत्यसे अपने पर या दूसरोंके प्राणोंपर विपत्ति आती हो ऐसे सत्यको भी असत्य ठहराया है क्योंकि वह भी असत्की १. 'यदिदं प्रमादयोगादसदभिधानं विधोयते किमपि । तदनृतमपि विज्ञेयं तद्भेदाः सन्ति चत्वारः ॥'-पुरुषार्थ. ९१ श्लो. । २. अमि. था. ६।४५-५८ । ३. अलियं ण जंपणीयं पाणिवहकरं तु सच्चवयणं पि । रायेण य दोसेण य णेयं विदियं वयं थूलं ॥'-वसु. श्रा. २१० गा, । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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