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________________ त्रयोदश अध्याय ( चतुर्थ अध्याय ) १७३ अभिमानावने....अयाचकत्ववतरक्षायां सत्याम् । गृद्धिरोधात्-भोजलोल्यप्रतिबन्धात् ॥३५।। मनःसिद्धया-मनोवशीकरणेन । वाक्सिद्धया-युगपत्रिजगदनुग्रहसमर्थभारतीविभूत्या। तथा चोक्तम् 'लौल्यत्यागात्तपोवृद्धिरभिमानस्य रक्षणम् । ततश्च समवाप्नोति मनःसिद्धि जगत्त्रये ।। श्रुतस्य प्रश्रयाच्छेयः समृद्धेः स्यात्समाश्रयः। ततो मनुजलोकस्य प्रसीदति सरस्वती ॥' [ सो. उपा. ८३५-८३६ ] अपि च. 'वाणी मनोरमा तस्य शास्त्रसन्दर्भगभिता । आदेया जायते येन क्रियते मौनमज्ज्वलम् ।। पदानि यानि विद्यन्ते वन्दनीयानि कोविदः । सर्वाणि तानि लभ्यन्ते प्राणिना मौनकारिणा ।।' [अमि. श्रा. १२।११४-११५ ] ॥३६॥ अथ नियतकालिकसार्वकालिकमौनयोरुद्यापनविशेषनिर्णयार्थमाह उद्योतनं महेनैकघण्टादानं जिनालये। असार्वकालिके मौने निर्वाहः सार्वकालिके ॥३७॥ महेन-उत्सवेन पूजया वा सह । उक्तं च विशेषार्थ-आचार्य अमितगतिने कहा है कि मौन सर्वदा प्रशंसनीय है किन्तु भोजन के समय विशेषरूपसे प्रशंसनीय है। जैसे रसायनका सेवन सदा उत्तम है किन्तु सरोग अवस्थामें तो कहना ही क्या है। जो मौनका पालन करता है वह सन्तोषकी भावना भाता है, वैराग्यके दर्शन करता है और संयमको पुष्ट करता है। उसकी वाणी मनोरम और शास्त्रोंके रहस्यको लिये हुए होती है । आचार्य सोमदेवने कहा है-भोजनकी लिप्सा त्यागनेसे तपकी वृद्धि होती है और अभिमानकी रक्षा होती है। और उनसे मन वशमें होता है। श्रुतकी विनय करनेसे कल्याण होता है। सम्पत्ति मिलती है और उससे मनुष्यलोकपर सरस्वती प्रसन्न होती है। इन्हीं बातोंको पं. आशाधरजीने ऊपर बहुत ही सयुक्तिक सुन्दर रीतिसे चित्रित किया है। वह कहते हैं कि निरतिचार मौन पालनेसे एक ओर मन वशमें होता है, दूसरी ओर वचन । मनको वशमें करनेसे शुक्लध्यानको ध्यानेमें समर्थ होता है। शुक्लध्यानसे ही अर्हन्त अवस्था प्राप्त होती है। जिसे प्राप्त कर लेनेपर दिव्यध्वनि खिरती है और उससे एक साथ तीनों लोकोंके जीवोंका उपकार होता है; क्योंकि समवसरणमें अधोलोकमें रहनेवाले भवनवासी और व्यन्तर देव, मध्यलोकके वासी मनुष्य और तिर्यञ्च तथा स्वर्गलोकके देव उपस्थित होकर भगवान्की वाणी सुनते हैं। यह वाणीकी सिद्धिका प्रभाव है । इस तरह मौनव्रतका बड़ा भारी फल है ॥३६।। मौनके दो प्रकार हैं-नियतकालिक और सार्वकालिक । दोनों ही प्रकारके मौनव्रतमें उद्योतन विशेष बतलाते हैं__अपनी शक्तिके अनुसार नियत कालके लिए किये गये मौन व्रतमें जिनालयमें पूजामहोत्सवके साथ एक घण्टा देना उद्योतन है। और जीवन पर्यन्तके लिए किये गये मौन व्रतमें उसको निराकुलतापूर्वक पालना ही उद्योतन है ॥३७।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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