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धर्मामृत ( सागार) गृद्धयै-इष्टभोज्यार्थम् । तन्निषेधार्थ हुंकारादिना स्वाभिप्रायज्ञापनं ( न ) दोषः । तदुक्तम्
'हुंकारांगुलिखात्कारभ्रमूर्धचलनादिभिः ।
मौनं विदधता संज्ञा विधातव्या न गृद्धये ।।' [ अमि. श्रा. १२।१०७ ] अथवा गृद्धयै-भोजनाभिकाङ्क्षाप्रवृत्त्यर्थम् । यदाह
'भ्रनेत्र-हंकार-कराङ्गलोभिर्गद्धिप्रवत्त्य परिवयं संज्ञाम ।
करोति भुक्ति विजिताक्षवृत्तिः स शुद्धमौनव्रतवृद्धिकारी ।' [ संक्लेशं-कोपदैन्याद्यविशुद्धिपरिणामम् । अनु–पश्चात् । उक्तं च
'कोपादयो न संक्लेशा मौनव्रत फलार्थिना।। पुरः-पश्चात् । कर्तव्य (?) अदन्-भोजनं कुर्वन् । यदाह
'सर्वदा शस्यते जोषं भोजने तु विशेषतः ।
रसायनं सदा श्रेष्ठं सरोगत्वे पुननं किम् ॥ [ अमि. श्रा. १२११०२] तप इत्यादि । यदाह
'सन्तोषो भाव्यते तेन वैराग्यं तेन दय॑ते ।।
संयम: पोष्यते तेन मौनं येन विधीयते ।।' [ अमि. श्रा. १२११०३ ] ॥३४॥ अथ मौनस्य तपोवर्धकत्वं श्रेयःसंचायकत्वं च श्लोकद्वयेन समर्थयते
अभिमानावने गृद्धिरोधाद्वर्धयते तपः।। मौनं तनोति श्रेयश्च श्रुतप्रश्रयतायनात् ॥३५।। शुद्धमौनान्मनःसिद्धया शुक्लध्यानाय कल्पते।
वाक्सिद्धया युगपत्साधुस्त्रलोक्यानुग्रहाय च ॥३६॥ विशेषार्थ-भोजन करते समय न बोलनेको मौन कहते हैं । मौन पूर्वक भोजन करना प्राचीन भारतीय पद्धति है। इससे जहाँ एक ओर इच्छाको रोकनेसे तपकी वृद्धि होती है वहीं दूसरी ओर प्राणिसंयम और इन्द्रियसंयममें भी वृद्धि होती है क्योंकि किसी रुचिकर व्यंजनकी इच्छा होनेपर भी माँग नहीं सकते अतः इच्छाको रोकना पड़ता है। साथ ही इन्द्रियतृप्तिकारक पदार्थके न मिलनेसे इन्द्रियोंका भी पोषण सीमित होता है । किन्तु मौन धारण करके भी इशारोंसे इच्छित वस्तुको माँगना अनुचित है । उससे तो मौनका उद्देश ही व्यर्थ हो जाता है । तथा भोजनसे पहले या बादमें क्रोधादि करनेसे भोजनका पाक भी ठीक नहीं होता, यह चिकित्साशास्त्र भी मानता है। अमितगतिने भी भोजनके समय इन बातोंका निषेध किया है। हाँ, यदि कोई वस्तु न लेनी हो तो मना करने के लिए हुँकार आदिसे संकेत कर सकते हैं ॥३४॥
आगे मौन तपको बढ़ानेवाला और पुण्यका संचय करनेवाला है इसका समर्थन दो श्लोकोंसे करते हैं
मौन धारण करनेसे अभिमानकी रक्षा होती है क्योंकि किसीसे कुछ माँगना नहीं होता, तथा भोजनकी लिप्साको रोकना होता है अतः तपकी वृद्धि होती है । और जूठे मुँहसे न बोलनेसे श्रतज्ञानकी विनय होती है और उससे पुण्यका संचय होता है ।।३५॥
देशव्रती श्रावक और साधु भोजन आदि में निरतिचार मौनव्रत पालन करनेसे चित्तको वशमें करनेके द्वारा शुक्लध्यान करने में समर्थ होता है। और वचनकी सिद्धिके द्वारा एक साथ तीनों लोकोंके भव्य जीवोंका उपकार करने में समर्थ होता है ॥३६।।
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