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________________ १७१ ६ त्रयोदश अध्याय ( चतुर्थ अध्याय ) श्रुत्वाऽतिककंशाक्रन्दविड्वरप्रायनिःस्वनम् । भक्त्वा नियमितं वस्त भोज्येऽशक्यविवेचनैः ॥३२॥ संसृष्टे सति जीवद्धि वैर्वा बहुभिमृतैः । इदं मांसमिति दृष्टसंकल्पे वाशनं त्यजेत् ॥३३॥ अतिप्रसङ्ग-विहितातिक्रमेण प्रवृत्ति ॥३०॥ आर्टे चर्मस्थीनि, ये च पूर्वकं वसादि दृष्ट्वा स्पृष्टुति योज्यम् । शुनकादि-मार्जारश्वपचादि स्पृष्ट्व न दृष्ट्रेति व्याख्येयम् ॥३१॥ अतिकर्कशं-अस्य मस्तकं कृन्त इत्यादि रूपम् । आक्रन्द-हा हा इत्याद्यार्तस्वरस्वभावम् । विड्वरप्रायं-परचक्रागमनातङ्कप्रदीपनादिविषयम् ॥३२॥ जीवैः-पिपीलिकादिभिः । बहुभिः-त्रिचतुरादिभिः । ईदृक्षसंकल्पे-सादृश्यादिदं रुधिरमिदमस्थि 'अयं सर्प' इत्यादिरूपेण मनसा विकल्प्यमाने भोज्यवस्तुनीत्यर्थः। अशनं-तात्कालिकमे. वाहारं न तु वैकालिकादिकम् । उक्तं च 'दर्शनस्पर्शसंकल्पसंसर्गत्यक्तभोजिताः। हिंसनाक्रन्दनप्रायाः प्रायः प्रत्यूहकारिणः ।। अतिप्रसंगहानाय तपसः परिवृद्धये । अन्तरायाः स्मृताः सद्भिवतवीजव्रतिक्रियाः॥ [ सो. उपा. ३२३-३२४ ] वृद्धास्त्वेवं पठन्ति_ 'रुहिरामिस चम्मट्ठो सुर पच्चखिउ बहुजंतु। अंतराय पालहि भविय दसणसुद्धिणिमित्तु ॥ [ साव. दोहा ३३ ] ॥३३॥ अथ हिंसाणुव्रतशीलत्वेन मौनव्रतं व्याचिख्यासुः पञ्चश्लोकीमाह गृद्धये हुकाराविसंज्ञां संक्लेशं च पुरोऽनु च । मुञ्चन् मौनमदन कुर्यात्तपःसंयमबृंहणम् ॥३४॥ काटो' इत्यादि अत्यन्त कठोर शब्दको, 'हाय-हाय' इत्यादि चिल्लानेके शब्दको, शत्रुसेनाके आक्रमण या आग लगाने आदिके शब्दोंको सुनकर, त्यागी हुई वस्तु खा लेनेपर, भोजनसे जिनको अलग करना शक्य नहीं है इस तरह के जीवित दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय जीवोंके भोजनमें मिल जाने पर या भोजनमें बहुतसे मरे जीवोंके गिर जानेपर और भोज्य पदार्थमें यह तो मांसके समान है इत्यादि विकल्प मनमें आनेपर भोजन छोड़ देना चाहिए ॥३१-३३॥ विशेषार्थ-भोजन करते समय यदि उक्त प्रकारकी गन्दी वस्तुओंको देख लिया जाये, या उनसे छू जाये, या हृदयभेदी शब्द कानमें आवे, या कोई त्यागी हुई वस्तु भूलसे खा ली जाये या भोजनमें जीवित जन्तु इस रूपमें गिर जाये कि उन्हें निकालना अशक्य हो या मरे हुए जीव गिर जायें, या खाते समय किसी व्यंजनको देखकर उसमें किसी बुरी वस्तुका संकल्प हो आवे तो भोजन छोड़ देना चाहिए। यह भोजन छोड़नेकी बात उसी समयके लिए है, अन्य समय सम्बन्धी भोजनके लिए नहीं है॥३१-३३॥ मौनव्रत अहिंसाणुव्रतका पोषक है। अतः पाँच श्लोकोंसे उसको कहते हैं अपनेको रुचिकर व्यंजनकी प्राप्तिके लिए हुंकार खकार आदिसे संकेत करनेको तथा भोजनसे पहले और भोजनके पश्चात् लड़ाई झगड़ा आदि सम्बन्धी संक्लेश रूप परिणामोंको छोड़ते हुए गृहस्थको खाते समय तप और संयमको बढ़ानेवाला मौन धारण करना चाहिए ॥३४॥ १. चाश मु.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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