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________________ १७० धर्मामृत ( सागार ) दिनाद्यन्तमुहूर्ती-दिवसस्यादावन्ते च द्वे द्वे घटिके । तदुक्तम् 'ये विवयं वदनावसानयोर्वासरस्य घटिकाद्वयं सदा। भुञ्जते जितहृषीकवाजिनस्ते भवन्ति भवभारजिनः॥ [ अमि. श्रा. ५।४७ ] स्वजन्मार्धम् । समांशे विषमांशे वाऽर्धशब्दो व्याख्येयः । तदुक्तम् 'करोति विरति धन्यो यः सदा निशि भोजनात् । सोऽधं पुरुषायुष्यस्य स्यादवश्यमुपोषितः ।।' [ योगशा. ३।६९ ] ॥२९॥ अथ रात्रिभोजनवर्जनवन्मूलव्रतविशुद्धयङ्गत्वादहिंसावतरक्षाङ्गत्वाच्च श्रावकस्य भोजनान्तरायान् श्लोकच तुष्टयेन व्याचष्टे अतिप्रसङ्गमसितुं परिवर्धयितुं तपः । व्रतबीजवृतीभुक्तरन्तरायान् गृहो धयेत् ॥३०॥ दृष्ट्वाऽद्रचर्मास्थिसुरामांसासृक्पूयपूर्वकम् । स्पृष्ट्वा रजस्वलाशुष्कचर्मास्थिशुनकादिकम् ॥३१॥ विशेषार्थ-नैष्ठिक श्रावक रातमें तो भोजन करता ही नहीं है। दिन में भी सूर्योदयके प्रथम मुहूर्त में भोजन नहीं करता और सूर्यास्त होनेसे एक मुहूर्त पहले ही अपना सब खानपान समाप्त कर देता है इस तरहसे उसका आधा जीवन उपवासपूर्वक बीतता है ।।२९॥ रात्रिभोजन त्यागकी तरह अन्तरायोंको टालकर भोजन करना भी मूलगुणोंकी विशुद्धिका तथा अहिंसाव्रतकी रक्षाका अंग है। अतः चार श्लोकोंसे भोजनके अन्तरायोंको कहते हैं व्रती गृहस्थ अतिप्रसंगको छोड़नेके लिए और तपको बढ़ाने के लिए, व्रतरूपी बीजकी रक्षाके लिए बाड़के समान भोजनके अन्तरायोंको पाले ॥३०॥ विशेषार्थ-जिनके उपस्थित होनेपर भोजन करना बीच में ही छोड़ दिया जाता है उन्हें भोजनके अन्तराय कहते हैं। ये अन्तराय व्रतरूपी बीजके उसी प्रकार रक्षक होते हैं जैसे खेतके चारों ओर लगायी गयी बाड़ खेतमें बोये गये बीजकी रक्षक होती है। इनके पालनेके दो हेतु हैं। पहला हेतु है अतिप्रसंगसे बचना और दूसरा है तपको बढ़ाना । उदाहरणके लिए, भोजन करते हुए हमारी दृष्टिके सामने मांस आ जाता है या भोजनमें मक्खी वगैरह गिर जाती है और हम भोजन करते रहते हैं। तो ऐसा करनेसे मांस आदिके प्रति हमारे मनमें जो ग्लानिका भाव है उसमें कमी आयेगी और तब धीरे-धीरे वह कमी बढ़ती गयी तो हम एक दिन मांस आदिको अच्छा भी मान सकते हैं। इसे ही अतिप्रसंग कहते हैं। दूसरे, इच्छाके रोकनेका नाम तप है। हमारी भोजनकी इच्छा है और उसमें विघ्न आनेपर भोजन छोड़ दिया तो हमने अपनी इच्छाको रोककर तपमें वृद्धि की है। इन हेतुओंसे भोजनके अन्तरायोंको पालना उचित है । आचार्य सोमदेवने भी कहा है'अतिप्रसंग दोषको दूर करने के लिए और तपकी वृद्धिके लिए महापुरुषोंने अन्तराय कहे हैं जो व्रतरूपी बीजकी रक्षाके लिए बाड़के समान हैं।' पूर्ववृद्धाचार्योंने कहा है कि दर्शनकी विशुद्धिके लिए अन्तराय पालना चाहिए ॥३०॥ - आगे तीन श्लोकोंसे उन्हीं अन्तरायोंको कहते हैं व्रती गृहस्थ ताजा चमड़ा, हड्डी, शराब, मांस, खून, पीब आदिको देखकर, रजस्वला स्त्री, सूखा चमड़ा, हड्डी, कुत्ते आदिको स्पर्श करके अर्थात् इनसे छू जानेपर, 'इसका सिर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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