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________________ त्रयोदश अध्याय ( चतुर्थ अध्याय ) १६१ अत्ययमये-दोषभूयिष्ठे दोषनिवृत्ते वा। स्वहितैषी-आत्मनो लोकद्वयेऽपि पथ्यमिच्छन् । तथा चोक्तमायुर्वेदेऽपि 'हन्नाभिपद्मसंकोचश्चण्डरोचिरपायतः । अतो नक्तं न भोक्तव्यं सूक्ष्मजीवादनादपि ॥ [ ] ॥२७॥ अथ दिनरात्रिभोजनद्वारेण पुंसामुत्तममध्यमजघन्यभावमाह 'भुञ्जतेऽह्नः सकृद्वर्या द्विमध्याः पशुवत्परे। रात्र्यहस्तद्वतगुणान् ब्रह्मोद्यान्नावगामुकाः ॥२८।। अहः-दिवसस्य मध्ये । ब्रह्मोद्यान्-सर्वज्ञप्रतिपाद्यान् । नावगामुकाः-अजानानाः । यदाह 'रात्रिभोजनविमोचिनो गुणा ये भवन्ति भवभागिनां पराः। तानपास्य जिननाथमोशते वक्तुमत्र न परे जगत्रये ॥' [ अभि. श्रा. ५।६७ ] ॥२८॥ अथ शास्त्रं निदर्शनं च विना सकलजनानुभवसिद्धं रात्रिभोजननिवृत्तेः फलमाह 'योऽत्ति त्यजन् दिनाद्यन्तमुहूर्ती रात्रिवत् सदा। स वयेतोपवासेन स्वजन्माद्धं नयन कियत् ॥२९॥ देव पूर्वाह्नमें, ऋषि मध्याह्नमें और पितृगण अपराह्नमें भोजन करते हैं। दैत्य-दानव सायाह्नमें भोजन करते हैं। यक्ष-राक्षस सदा सन्ध्यामें भोजन करते हैं। इन सब वेलाओंको लांघकर रात्रिमें भोजन करना अनुचित है। आयुर्वेद में भी कहा है-'सूर्यके अस्त हो जानेसे हृदय और नाभिमें स्थित कमल भी बन्द हो जाता है इसलिए रात्रिमें भोजन नहीं करना चाहिए । तथा रात्रिमें सूक्ष्म जीवोंके भी खाये जानेका प्रसंग रहता है' ॥२७॥ दिन और रात्रिभोजनके द्वारा मनुष्योंका उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्यपना बताते हैं उत्तम पुरुष दिनमें एक बार, मध्यम पुरुष दो बार और सर्वज्ञके द्वारा कहे गये रात्रिभोजन त्यागके गुणोंको न जाननेवाले जघन्य पुरुष पशुओंकी तरह रात-दिन खाते हैं। अर्थात जो दिनमें केवल एक बार भोजन करते हैं वे उत्तम हैं, जो दो बार भोजन वे मध्यम हैं और जो रात-दिन खाते हैं वे पशुके तुल्य हैं ।।२८॥ आगे शास्त्रके उदाहरणके बिना रात्रिभोजनके त्यागका जो फल सब लोगोंके अनुभवमें आया हुआ है उसे कहते हैं जो रात्रिकी तरह दिनका प्रथम और अन्तिम मुहूर्त छोड़कर सदा भोजन करता है वह अपना आधा जीवन उपवासपूर्वक बिताता है उसकी कितनी प्रशंसा की जावे ॥२९।। १. भुज्यते गुणवतेकदा सदा मध्यमेन दिवसे द्विरुज्ज्वले । येन रात्रिदिनयोरनारतं भुज्यते स कथितो नरोऽधमः ।।-अमि. श्रा. ५।४६ । २. 'वल्भते दिननिशीथयोः सदा यो निरस्तयमसंयमक्रियः। शृंगपुच्छशफसंगजितो भण्यते पशुरयं मनीषिभिः ॥-अमि. श्रा. ५१४४ 'वासरे च रजन्यां च यः खादन्नेव तिष्ठति । शृङ्गपुच्छपरिभ्रष्ट: स्पष्ट स पशुरेव हि ॥' -योगशास्त्र ३१६२। ३. 'अह्नो मखेऽवसाने च यो द्वे द्वे घटिके त्यजन् । निशाभोजनदोषज्ञोऽश्नात्यसौ पुण्यभाजनम् ॥' -योगशास्त्र ३१६३ । सा.-२२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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