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________________ १६४ धर्मामृत ( सागार) प्रणयः स्नेहः । तस्यापि धर्मविरोधित्वेनैव प्रमादत्वम् । तदुक्तं 'प्रेमानुविद्धहृदयो ज्ञानचारित्रान्वितोऽपि न श्लाघ्यः। दीप इवापादयिता कज्जलमलिनस्य कार्यस्य ।।' [ आत्मानु. २३१ ] पापं बन्धाद्यतीचारदुष्कृतं तत् ध्वान्तमिव पुण्यप्रकाशविरोधित्वात् , तत्र रविप्रभा तदनवग्राह्यत्वात् । तदुक्तम् 'पुण्यं तेजोमयं प्राहुः प्राहुः पापं तमोमयम् । तत्पापं पुंसि किं तिष्ठेद्दयादीधितिमालिनि ।' [ सो. उपा. ३३९ ] ॥२२॥ अथ गृहस्थस्याहिंसा दुष्परिपालत्वशङ्कामपाकरोति विष्वग्जीवचिते लोके व चरन् कोऽप्यमोक्ष्यत । भावैकसाधनौ बन्धमोक्षौ चेन्नाभविष्यताम् ॥२३॥ विष्वग्जीवचिते-समन्ताज्जन्तुव्याप्ते । यत्पठन्ति 'तिहुयणुचि यदघियह अलिज्जरुणाखतेहिं । तेहइ णिवसंता हं कहिं मुणिवरदयठाइ ॥ [ अमोक्ष्यत-मोक्षमगमिष्यत । भावैकसाधनौ-भावः परिणाम एकमुत्कृष्टं प्रधानं साधनं निमित्तं १५ ययोः। तत्र शुभाशुभोपयोगी पुण्यपापरूपबन्धस्य शुद्धोपयोगश्च मोक्षस्य प्रधानं कारणमिति विभागः । तदुक्तम् है।' प्रणय स्नेहको कहते हैं । वह भी धर्मका विरोधी होनेसे ही प्रमाद होता है। कहा है'जिसका हृदय प्रेमसे बिंधा हुआ है वह ज्ञान और चारित्रसे युक्त होनेपर भी प्रशंसनीय नहीं है । जैसे दीपकका कार्य कज्जलसे मलिन करना प्रशंसनीय नहीं है, यद्यपि वह प्रकाशदाता होता है। इन पन्द्रह प्रमादोंको दूर करनेसे, इनके वशमें न होनेसे अहिंसाका पालन ठीक रीतिसे होता है। इस तरह अहिंसाका पालन करना चाहिए, क्योंकि वह पापरूपी अन्धकारको दूर करनेके लिए सूर्यकी प्रभाके समान है। जैसे सूर्यकी प्रभासे अन्धकार दूर हो जाता है उसी तरह अहिंसासे पाप कट जाता है। कहा भी है-पुण्यको प्रकाशमय कहा है और पापको अन्धकारमय कहा है । जिस मनुष्यमें दयारूपी सूर्य चमकता है उसमें पाप कैसे ठहर सकता है' ॥२२॥ ___ जो यह शंका करते हैं कि गृहस्थ के लिए अहिंसाका पालन अशक्य जैसा है, उनकी शंकाका समाधान करते हैं___यदि बन्ध और मोक्षका प्रधान कारण जीवका परिणाम न होता तो सर्वत्र जन्तुओंसे भरे हुए इस जगत्में कहीं भी चेष्टा करनेवाला कोई भी मुमुक्षु क्या मोक्ष जा सकता था, अर्थात् नहीं जा सकता था ॥२३॥ विशेषार्थ-इस जगत्में सर्वत्र जीव भरे हैं। जल, थल, आकाशका कोई ऐसा स्थान नहीं जहाँ सूक्ष्म या स्थूल जीव न हों। और वे हमारी चेष्टाओंसे, हाथ-पैर हिलाने या श्वास लेनेसे मरते भी हैं। किन्तु जैनधर्म इस प्रकारके प्रत्येक जीवघातको हिंसा नहीं मानता। हिंसाके दो प्रकार हैं-द्रव्यहिंसा और भावहिंसा। सकषायरूप आत्मपरिणामके योगसे प्राणोंके घातको हिंसा कहते हैं। जहाँ सकषायरूप आत्मपरिणाम नहीं है वहाँ प्राणघात हो १. स्नेहानु-आत्मानु. । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org...
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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